सिंदूर
सिंदूर
तुम गए बचा न शेष कहीं कुछ
रीते -रीते मौसम सारे,
पायल -बिंदिया- चूड़ी- कंगना
मेंहदी -कुमकुम सब रूठे मुझसे।
चन्दन का एक तिलक रहा बस,
और कंठी एक तुलसी जी की,
हलके रंगो की परछाई में,
छाया रही अधूरेपन की।
तुम गए ले गए संग अपने,
अधिकार ,शौक और सब सपने,
नियम -संयम से ध्यान करो ,
कहते मुझसे मेरे सब अपने।
मेरा होना, न होना ,
किसकी नज़रो में आता है!
पर कदम जरा सा लापरवाह हो,
तो जग दुश्मन बन जाता है।
त्यौहार नहीं हैं मेरे तुम बिन,
मोक्ष हेतु सब व्रत धरे,
अगला जन्म सुहागन जाऊँ,
दान -पूण्य इस हेतु किये।
अपशगुनी की परछाई बन,
मंगल कारज में दूर रहूँ मैं,
हँसू बोलूँ अगर मैं खुलकर,
शक्की नैनों का लक्ष्य बनूँ।
मैं गई तुम्हारे जीवन से जब
क्या रूठा तुमसे सच सच कहना ?
रंग गुलाल के मौसम सब थे,
क्या छूटा तुमसे सब कह दो ना
अपशुगुनी कहकर तुमको,
किसने कब धिक्कार दिया ?
हँसने गाने जीवन जीने का,
सबने तुमने अधिकार दिया !
नहीं अधूरेपन को बोला,
नहीं किसी ने संयम को,
ले आये डोली में तुम तो,
जल्दी मेरी सौतन को!
ये कैसा है साथ प्रिय,
ये कैसा रिश्ता जन्मों का ?
जगह वही बस नाम ही बदला,
तेरा सिंदूर लगाने वाली का।
