शून्य
शून्य
ताउम्र सुलझाया जाए तो भी क्या
कुछ धागे फ़क़त होते ही उलझने की लिए।
मैं चला हमेशा जोड़ता हर हिस्सा
कि हर बारी एक गांठ जुड़ती चली गईं।
अंत मै न गांठे और न धागे का उलझना चुभता है
चुभता है तो वह जो है मेरे अंतर्मन का परिवर्तन।
जिसमें अब शेष नहीं कुछ भी न प्रेम न द्वेष
न अपेक्षा न प्रतीक्षा न हर्ष न विलाप।