श्रृंगार
श्रृंगार
मेरा संघर्ष ही मेरा श्रृंगार है।
हर दीन एक नई चुनौती को
चूड़ियों सा खनकाती हूँ ,
टूटी हर हिम्मत से
हौसलों का हार बनाती हूँ ।
समाज की लदी बेड़ियों को
घुंघरू बना छनकाती हूँ ,
सब नफरत भरी निगाहों का
आंखों में काजल लगाती हूँ ।
मिले ताने गर राह -ए -मंजिल पर
उसे झुमके की तरह सजाती हूँ,
गर उठे उंगली जो सामने कोई
तो बना के हीर अंगूठी में जड़ा देती हूं।
मिली हर जिम्मेदारी का
सर मांगटीका सजाती हूँ
अपने सपने और स्वाभिमान को
हर पल बिंदी सा चमकाती हूँ ।
नशा ही क्या उस हुस्न -ए -ताबीर का
जो मोहताज हो झूठे जेवर की,
श्रृंगार की यह परिभाषा से
अपना किरदार सजाती हूँ ।
काजल की कलम से