शरण तुम्हारी।
शरण तुम्हारी।
शिष्य हूं मैं आपका, मुझको कृतार्थ तो कीजिए।
फँस गया भव-जाल में, भव-रोग मुक्त कर दीजिए।।
था किया भय मुक्त तुमने, ग्राह को जिस स्नेह से।
कर कृपा इस दीन पर, देकर शरण उस भाव से।।
चतुर्भुज रूप तुम विख्याता, शरणागत के तुम हो विधाता।
द्वार तुम्हारे जो भी आता, मनवांछित फल वह है पता।।
अंतर्दृष्टि उसकी खुल जाती, हृदय तपन उसकी मिट जाती।
आश्रय दाता तुम सबके बन जाते, बिन मांगे झोली भर जाती।।
सबके हृदय में तुम ही रहते, भव-सिंधु को पार तुम करते।
जप-तप साधन हमसे न बनता, फिर भी तुम कृपा ही करते।।
करुणा सिंधु करुणा तुम करना, मुझ अधम की लाज तुम रखना।
निर्लज्जता, अभिमान से भरी काया, अवसाद मुक्त जीवन तुम करना।।
पाप बोझ से लदी मेरी नइया, सूझ न पड़ता कोई खिवइया।
"नीरज" पड़ा अब शरण तुम्हारी, तुम बिन कोई न पार लगइया।।