श्रीमद्भागवत महात्म- पहला अध्याय; परीक्षित और वज्रनाभ का समागम, शाण्डलय मुन
श्रीमद्भागवत महात्म- पहला अध्याय; परीक्षित और वज्रनाभ का समागम, शाण्डलय मुन
श्रीमद्भागवत महात्म- पहला अध्याय; परीक्षित और वज्रनाभ का समागम, शाण्डलय मुनि के मुख से भगवान की लीला के रहस्यों और व्रजभूमि के महत्व का वर्णन
महर्षि व्यास कहें, सच्चिदानंदधन जी
अपने सौन्दर्य, माधुर्य आदि गुणों से
सबका मन कर लेने पर भी सदा
सुख की वर्षा करते रहते ।
उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय है होती
विश्व में जिनकी शक्ति से
उनकी भक्तिरस का आस्वादन
करने को, उनको प्रणाम हम करते ।
नैमिषारण्य में सूत जी ने
प्रश्न किया शौनकादि ऋषियों से
कि युधिष्ठिर ने जब अनिरुद्ध नंदन
व्रजनाभ का राज्याभिषेक किया मथुरा में ।
और पौत्र परीक्षित का राज्याभिषेक
हस्तिनपुर में कर हिमालय चले गए
तब राजा वज्र और परीक्षित ने
कैसे और कौन से कर्म किए ।
सूत जी कहें, शौनकादि ऋषियों
युधिष्ठिर और पांडवगण सारे
स्वर्गारोहण के लिए वे
सब के सब हिमालय चले गए ।
परीक्षित तब मथुरा में आए
उदेश्य उनका वज्रनाभ से मिल लें
हृदय प्रेम से भर गया जब
वज्रनाभ का समागम मिला उन्हें ।
पितातुल्य उनके लिए परीक्षित
चरणों में प्रणाम किया उनके
परमप्रेमी बड़े भक्त थे
वीर परीक्षित भगवान कृष्ण के ।
कृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ का
बड़े प्रेम से आलिंगन किया उन्होंने
रोहिणी आदि पत्नियों को कृष्ण की
प्रणाम किया जाकर अनंतपुर में ।
परीक्षित ने वज्रनाभ से तब कहा
हे तात, तुम्हारे पिता, पितामह ने
मेरे पिता और पितामह को
बचाया है बड़े बड़े संकटों से ।
बदला इसका मैं चुका नहीं सकता
मेरी रक्षा भी की थी उन्होंने
तुम्हें प्रार्थना करता हूँ इसलिए
कि सुखपूर्वक राजकाज में जमे रहो इसलिए ।
अपनी माताओं की सेवा करो
यदि कोई विपत्ति आ जाए
या कोई मन में कलेश हो
निश्चिंत हो जाना बताकर तुम मुझे ।
सभी चिन्तायें दूर करूँ तुम्हारी मैं
और जब ऐसा कहा परीक्षित ने
वज्रनाभ प्रसन्न हो गए और
परीक्षित से वो ये कहने लगे ।
महाराज, जो आप कह रहे मुझे
वो सर्वथा अनुरूप आपके
धनुर्विद्या की शिक्षा दी थी
आपके ही पिता ने मुझे ।
शूरवीरता भी मेरी उन्ही की कृपा से ही
संपन्न हूँ भलीभाँति मैं भी
प्रन्तु मुझे बहुत बड़ी चिंता
बस है एक ही बात की ।
यद्यपि मथुरामंडल पर अभिशिप्त मैं
तथापि रहता यहाँ निहित वन में
यहाँ की प्रजा कहाँ चली गई
कुछ भी पता नहीं है मुझे ।
राज्य का सुख तो तभी है
जब उसमें प्रजा है रहती
ऐसा जानकर तब परीक्षित ने
और बात सुनकर वज्रनाभ की ।
महर्षि शांडिल्य को बुलाया उन्होंने
जो पुरोहित थे नन्द आदि गोपों के
शांडिल्य बोले, परीक्षित, वज्रनाभ
व्रजभूमि का रहस्य बतलाऊँ मैं तुम्हें ।
व्रज शब्द का अर्थ है व्याप्त
और व्यापक होने के कारण ही
इस भूमि का नाम व्रज पड़ा
सत्व, रज और तम तीनों ही ।
गुणों से अतीत जो परब्रह्म
परमात्मा है, व्याप्त यहीं
इसलिए इसे ब्रज कहते हैं
परमज्योतिर्मय वो तो अविनाशी ।
जीवनमुक्त पुरुष स्थित रहें उसी में
कृष्ण अविनाशी, सच्चिदानंदस्वरूप उनका
प्रेमरस में डूबे हुए रसिकों को
ही है उनका अनुभव होता ।
भगवान कृष्ण की आत्मा राधिका
उनसे रमन करते रहने से
रहस्य रस के मर्मज्ञ ज्ञानी पुरुष
उन्हें आत्मरूप हैं कहते ।
काम शब्द का अर्थ है कामना
व्रज में वांछित पदार्थ कृष्ण के
गोप, गोपियाँ, लीला विहार आदि
नित्य प्राप्त हैं यहाँ सब ये ।
Isi से कहा गया है
आप्तकाम श्री कृष्ण को
प्रकृति से परे है
श्री कृष्ण की यह रहस्य लोक जो ।
खेलने लगते हैं जिस समय
श्री कृष्ण इस प्रकृति से
उस समय दूसरे लोग भी
उनकी लीला का अनुभव करते ।
सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण के द्वारा
प्रकृति के साथ होती लीला में ही
प्रतीति होती है इन सभी
सृष्टि, स्थिति और प्रलय की ।
इस प्रकार ये निश्चय होता
कि ये लीला है दो प्रकार की
एक को वास्तवी कहते
और दूसरी ब्यावहारिकी ।
वास्तवी लीला स्वयंवेद्य है
भगवान और रसिक ही जानते उसको
जीवों के सामने लीला जो होती
व्यवहारिकी कहते हैं उसको ।
वास्तविक लीला के बिना
व्यावहारिक लीला नहीं हो सकती
प्रन्तु व्यवहारिकी लीला का
वास्तविक लीला के राज्य में प्रवेश नहीं ।
Tum लोग देख रहे हो
जिस लीला को भगवान की
यह व्यावहारिकी लीला है
और स्वर्ग आदि और पृथ्वी ।
इसी लीला के अंतर्गत हैं
मथुरामंडल भी पृथ्वी पर इसी
और यही वह व्रजभूमि है
वास्तवी लीला जहाँ होती ।
गुप्त रूप से होती रही ये
और कभी कभी ये लीला जो
सब और दीखने लगती है
प्रेमपूर्ण हृदय वाले भक्तों को ।
अट्ठाईसवें द्वापर के अंत में
भक्तजन जब एकत्र होते
भगवान की लीला के अधिकारी हैं जो
तब भगवान अवतार ले लेते ।
जैसे कि इस समय भी
कुछ काल पहले
और उनके इन अवतारों का
यही प्रयोजन होता है कि ।
रहस्य लीला के अधिकारी भक्तजन
अंतरंग परिकरों के साथ में
सम्मिलित होकर लीला रस का
आस्वादन कर सकें वे ।
Is प्रकार अवतार ग्रहण कर
जब भगवान, तो उनके साथ में
उनके प्रेमी देवता, ऋषि आदि
सब और अवतार हैं लेते ।
अभी अभी जो अवतार हुआ था
उसमें सभी प्रेमियों की भगवान ने
अभिलाषाएँ पूर्ण कर दीं हैं
अब अन्तर्धान हो चुके हैं वे ।
इससे यह निश्चय हुआ कि
तीन प्रकार के भक्तजन उपस्थित थे यहीं
पहली श्रेणी अन्तरंग पार्षद हैं
जिनका भगवान से कभी वियोग नहीं ।
दूसरी श्रेणी में वो जो एकमात्र
भगवान को पाने की इच्छा रखते हैं
उनके अंतरंग लोकों में
वो अपना प्रवेश चाहते हैं ।
तीसरी श्रेणी में देवता आदि हैं
इनमें से जो देवताओं के अंश से ही
अवतीरण हुए हैं और उन्हें
ब्रजभूमि से उठाकर पहले ही ।
द्वारका पहुँचा दिया था
और फिर स्वयं भगवान ने
ब्राह्मणों से शाप दिलाकर
भेज दिया स्वर्ग में उन्हें ।
तथा जिन्हें एकमात्र इच्छा थी
भगवान को ही पा लें वे
उन्हें प्रेमानंद स्वरूप बनाकर
सम्मिलित किया अपने नित्य पार्षदों में ।
जो नित्य पार्षद हैं, यद्यपि वे
सदा ही रहते नित्य लीला में
प्रन्तु वो अधिकारी नहीं हैं
उनके प्रत्यक्ष दर्शनों के ।
अदृश्य हो गए वो उनके लिए
और जो स्थित हैं व्यवहारिक लीला में
पर वो अधिकारी नहीं हैं
दर्शन पाने के नित्य लीला के ।
सब और निर्जन वन सूना दीखता
इसलिए यहाँ आने वालों को
क्योंकि वे देख नहीं सकते
वास्तविक लीला में स्थित। भक्तों को ।
वज्रनाभ, चिंता ना करो तुम
सिद्धि होगी तुम्हारे मनोरथों की
नाम रखो विभिन्न स्थानों का
भगवान ने जैसी जहाँ लीला की थी ।
गोवर्धन, मथुरा, गोकुल, नन्दगाँव
बरसाना आदि में छावनी बनाओ
भगवान की लीला के स्थल नदी, पर्वत
कुंज, वन आदि का सेवन करो ।
राजय की प्रजा प्रसन्न हो इससे
तुम भी अत्यंत प्रसन्न हो जाओ
व्रजभूमि ये सचिदानंदमयी है
अतः इस भूमि का का तुम सेवन करो ।
मेरी कृपा से पहचान हो जाएगी
तुमको ठीक ठीक उन स्थानों की
जहाँ पर भी भगवान कृष्ण ने
भिन्न भिन्न हैं लीलाएँ की ।
व्रजभूमी का सेवन करते समय
उद्धव भी तुम्हें कहीं मिल जाएँगे
अपनी माताओं सहित तुम उनसे
लीलाओं का रहस्य जान पाओगे ।
शाण्डिल्य मुनि इन दोनों को
समझा बुझाकर इस प्रकार से
स्मरण करते हुए भगवान कृष्ण को
अपने आश्रम को चले गए ।
