श्रीमद्भागवत -९१ ;ऋषभदेव का देहत्याग
श्रीमद्भागवत -९१ ;ऋषभदेव का देहत्याग
शुकदेव जी से पूछा परीक्षित ने
देववश आत्माराम मुनियों को
अगर स्वयं सिद्धिआं प्राप्त हों
राग, द्वेष का कारण न बन पाएं वो।
फिर भगवान ऋषभदेव ने
क्यों नहीं उन्हें स्वीकारा
शुकदेव जी कहें, उत्तर सुनो इसका
बहुत सही ये प्रशन तुम्हारा।
बुद्धिमान लोग नहीं करते हैं
इस चंचल चित का भरोसा
मैत्री न करो इस चंचल चित से
मुनियों को भी इस ने दिया धोखा।
मोहिनी रूप में फंसकर महादेव का
चिरकाल का संचित तप क्षीण हुआ
जो लोग विश्वास करें मन पर
काम क्रोध ने उनको भ्रष्ट किया।
काम क्रोध, मद, लोह, मोह और भय
इन सब का मूल ये मन है
कर्मबन्धन का मूल भी यही
विश्वास करना इसपर कठिन है।
इसीसे ऋषभदेव यद्यपि
लोकपालों के भूषणस्वरूप थे
तो भी वे जड़ पुरुषों की भांति
रहते वेश में अवधूतों से।
इस वेश में थे छुपाते
अपने ईशवरीय प्रभाव को
अंत में वो सिखाना चाहें
देह त्याग की विधि मुनियों को।
लिंगदेह के अभिमान से मुक्त हो
वो तब थे अभिराम हो गए
और ऐसे शरीर को लेकर
पृथ्वीतल पर वो विचरने लगे।
मुँह में पत्थर का टुकड़ा डाले
बाल बिखेरे वो उन्मत से
दिगंबर रूप में वन में विचरें
घूमने लगे कुटकाचल क्षेत्र में।
वन में बांसों के घर्षण से
प्रबल अग्नि धधक उठी थी
वन को अपनी लपटों में लिया
लीन हो गए ऋषभदेव भी।
भगवान का यह अवतार जो है वो
शिक्षा देने वाला मोक्ष की
रजोगुण से जो लोग भरे हुए
अवतार हुआ उनके लिए ही।
पारमहंसय धर्म का प्रचार किया
प्राप्ति होती जिससे मोक्ष की
ऋषभदेव को नमस्कार है
जिन्होंने ये सारी शिक्षा दी।