श्रीमद्भागवत-७०; राजा वेन की कथा
श्रीमद्भागवत-७०; राजा वेन की कथा
मैत्रेय जी ने कहा विदुर जी से कि
भृगु अदि ने जब ये देखा
अंग के जाने के बाद पृथ्वी की
रक्षा करे जो, कोई न रह गया|
तब उन्होंने माता सुनीथि और
बाकी मुनियों से सहमति लेकर
वेन को अभिषिक्त कर दिया
इस भूमण्डल के राज्य पर|
वेन बड़ा कठोर शासक था
चोर डाकू छिप गए यहाँ तहां
वेन राज्य पाकर अभिमानवश
महापुरुषों का अपमान करने लगा|
ऐश्वर्यमद से सर्वत्र विचरता
धर्म कर्म सब बंद कर दिए
ढिंढोरा पिटवा दिया नगर में
यज्ञ, दान, हवन कोई न करे|
वेन का अत्याचार देखकर
सारे ऋषि मुनि एकत्रित हुए
संसार पर संकट आया जानकार
आपस में वो सब कहने लगे|
इस समय सारी प्रजा को
एक तरफ राजा का भय है
दूसरी तरफ चोरों से प्रजा ये
महान संकट में पड गयी है|
राजा बनाया अयोग्य वेन को
अराजकता के भय से हमने
पर अब ये राजा बनकर ही
प्रजा पर है अत्याचार करे|
इस वेन को नियुक्त किया था
प्रजा की रक्षा के लिए हमने
रक्षा तो दूर की बात है
लगा प्रजा को नष्ट ये करने|
हमें इसे समझाना चाहिए
पर फिर भी अगर ये न माने तो
कर देंगे हम भस्म तेज से
इस दुष्ट पापी वेन को|
मुनि लोग तब वेन के पास गए
क्रोध छिपाकर उसे कहने लगे
राजन, जो बात हम कहने आये
कृपाकर उसपर ध्यान दीजिये|
इससे वृद्धि होगी आपकी
आयु की और बल, कीर्ति की
मनुष्य जो धर्म का आचरण करे
उसे स्वर्गादि की प्राप्ति होती|
मोक्ष पद पर पहुंचा देता
मनुष्य को जो, वो यही धर्म है
आपके द्वारा नष्ट न हो ये
प्रजा का ये कल्याणरूप है|
धर्म अगर है नष्ट हो जाता
ऐश्वर्य राजा का भी मिट जाता
राजन, भगवन श्री हरि ही
समस्त यज्ञों के हैं नियष्टा|
आपकी उन्नत्ति के लिए ही
प्रजा आपकी है यज्ञ करे
ब्राह्मण जो अनुष्ठान करें उससे
आपको मनचाहा फल मिले|
आपको हम समझाने आये
फल देते यज्ञों के देवता
यज्ञों को तुम बंद करो न
तिरस्कार करो न उनका|
'तुम सब बड़े मूर्ख हो'
वेन ने कहा तब मुनियों को
छोड़ मुझे, जो जीविका दे तुम्हे
किसी और की उपासना करते|
राजा रूप परमेश्वर का
जो लोग हैं अनादर करते
इस लोक में सुख पाएं न
न ही सुख पाएं वो परलोक में|
जिसकी तुम हो भक्ति करते
वो यज्ञपुरुष कौन है?
देवता रहते राजा के शरीर में
इसलिए राजा सर्वदेवमय|
इसलिए, हे ब्राह्मणो
मेरा ही पूजन करो तुम
अग्रपूजा का मैं अधिकारी
और किसी को मत भजो तुम|
मैत्रेय जी कहें, हे विदुर जी
विपरीत बुद्धि थी हो गयी जब
कुमार्गगामी वो पहले से था
अत्यंत पापी भी हो गया तब|
उसका पुण्य क्षीण हो गया
मुनियों की बात पर ध्यान न दिया
अत्यंत कुपित हो गए वेन पर
जब अपमान देखा मुनियों ने अपना|
सोचें अगर ये जीता रहा तो
संसार को अवश्य भस्म कर देगा
विष्णु की निंदा करने से
राजसिंहासन के योग्य न रहा|
इस प्रकार सोच मुनियों ने
मारने का उसे था निश्चय कर लिया
पहले से ही मर चुका प्रभु निंदा से
हुंकार से ही वो था मर गया|
मुनिगण फिर आश्रम चले गए
माता सुनीथा शोक करने लगीं
कई यत्न से, मंत्रिओं के साथ में
पुत्र के शव की रक्षा करने लगीं|
सरस्वती के तट पर एक दिन
सभी मुनिगण थे बैठे हुए
पवित्र जल में स्नान कर सभी
आपस में चर्चा थे कर रहे|
देखें बहुत उपद्रव हो रहे
लोगों में आतंक फैल रहा
चोर डाकू निर्भीक हो गए
पृथ्वी का रक्षक कोई न|
देश में अराजकता फैल गयी
राज्य शक्तिहीन हो गया
चोर डाकू बढ़ गए हैं
राज्य राजा विहीन हो गया|
सोचें कि राजर्षि अंग का
वंश भी नष्ट न होना चाहिए
प्रतापी राजा दिए इस वंश ने
इसके लिए कुछ करना चाहिए|
यही सोच फिर मृत वेन की
मथा जांघ को बड़े जोर से
एक बोना पुरुष प्रकट हुआ
उस जांघ को ऐसे मथने से|
कोए के सामान काला वो
उसकी भुजाएं बहुत छोटी थीं
टांगें छोटी, जबड़े बड़े
नेत्र लाल, नाक चपटी थी|
उसने बड़े नम्र भाव से
'क्या करूं मैं', ये था पूछा
ऋषिओं ने बैठने को कहा उसे
और उसे निषाद नाम दिया|
जन्म लेते ही उसने वेन के
पापों को ऊपर लिया अपने
इसीलिए उसके वंशधर नैषद
रत रहते हिंसा अदि में|
