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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत-७०; राजा वेन की कथा

श्रीमद्भागवत-७०; राजा वेन की कथा

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मैत्रेय जी ने कहा विदुर जी से कि 

भृगु अदि ने जब ये देखा 

अंग के जाने के बाद पृथ्वी की 

रक्षा करे जो, कोई न रह गया|


तब उन्होंने माता सुनीथि और 

बाकी मुनियों से सहमति लेकर 

वेन को अभिषिक्त कर दिया 

इस भूमण्डल के राज्य पर|


वेन बड़ा कठोर शासक था 

चोर डाकू छिप गए यहाँ तहां 

वेन राज्य पाकर अभिमानवश 

महापुरुषों का अपमान करने लगा|


ऐश्वर्यमद से सर्वत्र विचरता 

धर्म कर्म सब बंद कर दिए 

ढिंढोरा पिटवा दिया नगर में 

यज्ञ, दान, हवन कोई न करे|


वेन का अत्याचार देखकर 

सारे ऋषि मुनि एकत्रित हुए 

संसार पर संकट आया जानकार 

आपस में वो सब कहने लगे|


इस समय सारी प्रजा को 

एक तरफ राजा का भय है 

दूसरी तरफ चोरों से प्रजा ये 

महान संकट में पड गयी है|


राजा बनाया अयोग्य वेन को 

अराजकता के भय से हमने 

पर अब ये राजा बनकर ही 

प्रजा पर है अत्याचार करे|


इस वेन को नियुक्त किया था 

प्रजा की रक्षा के लिए हमने 

रक्षा तो दूर की बात है 

लगा प्रजा को नष्ट ये करने|


हमें इसे समझाना चाहिए 

पर फिर भी अगर ये न माने तो 

कर देंगे हम भस्म तेज से 

इस दुष्ट पापी वेन को|


मुनि लोग तब वेन के पास गए 

क्रोध छिपाकर उसे कहने लगे 

राजन, जो बात हम कहने आये 

कृपाकर उसपर ध्यान दीजिये|


इससे वृद्धि होगी आपकी 

आयु की और बल, कीर्ति की 

मनुष्य जो धर्म का आचरण करे 

उसे स्वर्गादि की प्राप्ति होती|


मोक्ष पद पर पहुंचा देता 

मनुष्य को जो, वो यही धर्म है 

आपके द्वारा नष्ट न हो ये 

प्रजा का ये कल्याणरूप है|


धर्म अगर है नष्ट हो जाता 

ऐश्वर्य राजा का भी मिट जाता 

राजन, भगवन श्री हरि ही 

समस्त यज्ञों के हैं नियष्टा|


आपकी उन्नत्ति के लिए ही 

प्रजा आपकी है यज्ञ करे 

ब्राह्मण जो अनुष्ठान करें उससे 

आपको मनचाहा फल मिले|


आपको हम समझाने आये 

फल देते यज्ञों के देवता 

यज्ञों को तुम बंद करो न 

तिरस्कार करो न उनका|


'तुम सब बड़े मूर्ख हो'

वेन ने कहा तब मुनियों को 

छोड़ मुझे, जो जीविका दे तुम्हे 

किसी और की उपासना करते|


राजा रूप परमेश्वर का 

जो लोग हैं अनादर करते 

इस लोक में सुख पाएं न 

न ही सुख पाएं वो परलोक में|


जिसकी तुम हो भक्ति करते 

वो यज्ञपुरुष कौन है?

देवता रहते राजा के शरीर में 

इसलिए राजा सर्वदेवमय|


इसलिए, हे ब्राह्मणो 

मेरा ही पूजन करो तुम 

अग्रपूजा का मैं अधिकारी 

और किसी को मत भजो तुम|


मैत्रेय जी कहें, हे विदुर जी 

विपरीत बुद्धि थी हो गयी जब 

कुमार्गगामी वो पहले से था 

अत्यंत पापी भी हो गया तब|


उसका पुण्य क्षीण हो गया 

मुनियों की बात पर ध्यान न दिया 

अत्यंत कुपित हो गए वेन पर 

जब अपमान देखा मुनियों ने अपना|


सोचें अगर ये जीता रहा तो 

संसार को अवश्य भस्म कर देगा 

विष्णु की निंदा करने से 

राजसिंहासन के योग्य न रहा|


इस प्रकार सोच मुनियों ने 

मारने का उसे था निश्चय कर लिया 

पहले से ही मर चुका प्रभु निंदा से 

हुंकार से ही वो था मर गया|


मुनिगण फिर आश्रम चले गए 

माता सुनीथा शोक करने लगीं 

कई यत्न से, मंत्रिओं के साथ में 

पुत्र के शव की रक्षा करने लगीं|


सरस्वती के तट पर एक दिन 

सभी मुनिगण थे बैठे हुए 

पवित्र जल में स्नान कर सभी 

आपस में चर्चा थे कर रहे|


देखें बहुत उपद्रव हो रहे 

लोगों में आतंक फैल रहा 

चोर डाकू निर्भीक हो गए 

पृथ्वी का रक्षक कोई न|


देश में अराजकता फैल गयी 

राज्य शक्तिहीन हो गया 

चोर डाकू बढ़ गए हैं 

राज्य राजा विहीन हो गया|


सोचें कि राजर्षि अंग का 

वंश भी नष्ट न होना चाहिए 

प्रतापी राजा दिए इस वंश ने 

इसके लिए कुछ करना चाहिए|


यही सोच फिर मृत वेन की 

मथा जांघ को बड़े जोर से 

एक बोना पुरुष प्रकट हुआ 

उस जांघ को ऐसे मथने से|


कोए के सामान काला वो 

उसकी भुजाएं बहुत छोटी थीं 

टांगें छोटी, जबड़े बड़े 

नेत्र लाल, नाक चपटी थी|


उसने बड़े नम्र भाव से 

'क्या करूं मैं', ये था पूछा 

ऋषिओं ने बैठने को कहा उसे 

और उसे निषाद नाम दिया|


जन्म लेते ही उसने वेन के 

पापों को ऊपर लिया अपने 

इसीलिए उसके वंशधर नैषद 

रत रहते हिंसा अदि में|


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