श्रीमद्भागवत -५३ ;देह गेह में आसक्त पुरुषों की अधोगति का वर्णन
श्रीमद्भागवत -५३ ;देह गेह में आसक्त पुरुषों की अधोगति का वर्णन
कपिल देव जी कहें, हे माता
काल की प्रेरणा से जीव ये
भ्रमण करता अलग अलग योनिओं में
किन्तु अनभिज्ञ उसके पराक्रम से।
सुख की अभिलाषा से जीव ये
कष्ट से वस्तु को प्राप्त करता
उसको बड़ा शोक फिर होता
जब काल उसको विनष्ट है करता।
जन्मे अलग अलग योनि में
आनंद मानता उसी में ही वो
नहीं छोड़ना चाहे वो योनि
भगवान की माया से मोहित हो।
शरीर, स्त्री, पुत्र, बन्धु और
धन में वो आसक्त है रहता
इनके पालन पोषण में ही
पाप कर्म वो करता रहता।
बार बार प्रयत्न करने पर
जब जीविका ना उसकी चलती
लोभवश आधीर हो प्राणी
इच्छा रखता दूसरों के धन की।
कुटुम्भ के पोषण में असमर्थ हो
दीन हो, वो चिंता करता फिर
स्त्री, पुत्र भी आदर न करें
उसको तब असमर्थ देखकर।
फिर भी उसको वैराग्य न हो
वृद्ध अवस्था आ जाये तब
जिनका पालन किया था उसने
वो उसका पालन करें अब।
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वृद्ध हो रूप बिगड़ जाता है
शरीर भी रोगी हो जाये
भोजन भी वो खा न सके
पुरुषार्थ भी ख़त्म हो जाये।
मृत्यु का जब समय निकट हो
शोकातुर वो पड़ा रहता है
मृत्युपाश से वशीभूत हो
बुलाने पर भी ना बोल सकता है।
अत्यन्त वेदना उसको होती
मृत्यु को प्राप्त हो जाता
यमदूत जब उसे लेने आते
मल, मूत्र निकल है जाता।
यमदूत उसे फिर लेकर जाते
जब यमलोक की यात्रा पर
मार्ग में वो कष्ट भोगता
व्याकुल होता पापों को याद कर।
भूख, प्यास बेचैन करे उसे
मूर्छित हो जाता थक कर वो
निन्यानवें हजार योजन का मार्ग
दो - तीन मुहूर्त में तय करे वो।
नरक की यातनाएं भोगता
धधकती आग में वो है जलता
सांप बिच्छू काटते उसको
सब पीड़ा सहन वो करता।
फिर मनुष्य योनि मिलने से पहले
अनगिनत योनिओं में वो जाता
कष्ट भोगकर शुद्ध हो फिर वो
मनुष्य योनि में फिर से आता।