श्रीमद्भागवत -४०; जय विजय को सनकादि का शाप
श्रीमद्भागवत -४०; जय विजय को सनकादि का शाप
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कष्ट पहुँचाएँगे देवताओं को
दिती को आशंका थी पुत्र उनके
कश्यप का वीर्य उन्होंने
सौ वर्ष रखा उदर में ।
गर्भाशय तेज से ही लोकों में
सूर्य का प्रकाश क्षीण हो गया
लोकपाल भी क्षीण हुए और
इंद्र तेजहीन हो गया ।
ब्रह्मा जी के पास गए सब
बोले हम बड़े भयभीत हो रहे
दिन रात अस्पष्ट हो गए
लोग सभी हैं दुखी हो रहे ।
कश्यप के वीर्य से स्थापित
दित्ति का ये गर्भ बढ रहा
सभी दिशाओं में जा रहा
सभी जगह अंधकार कर रहा ।
देवताओं की प्रार्थना सुनकर
ब्रह्मा जी हंसे और कहने लगे तब
इसका कारण मैं हूँ जानूँ
तुम्हें कथा सुनाऊँ मैं अब ।
तुम्हारे पूर्वज सनकादि जी
समस्त लोकों में विचर रहे थे
प्रभु विष्णु का दर्शन करने
वैकुण्ठलोक में वो गए थे ।
पहुँचे भगवान के कक्ष के बाहर
देवश्रेष्ठ दो खड़े वहाँ पर
बिन पूछे उन द्वारपालों से
मुनि श्रेष्ठ घुस जाएँ अंदर ।
सृष्टि में सबसे बड़े पर
चार वर्ष के बालक लगते
नंग धडंग वो रहने वाले
प्रभु भक्ति में मगन वो रहते ।
निसंकोच भीतर जा रहे
द्वारपालों ने रोक लिया था
यद्यपि इसके योग्य ना वो
दुर्व्यवहार उनसे किया था ।
ऐसा करने से सनकादि के
नेत्र क्रोध से लाल हो गए
कहने लगे, द्वारपालों सुनो तुम
लोग जो हैं इस लोक में रहें ।
भगवान के समान समदर्शी होते
तुम्हारे स्वभाव में विषमता क्यों है
भगवान परम शांत स्वभाव हैं
तुम्हारे मन में शंका क्यों है।
पार्षद हो तुम श्री हरि के
पर बहुत मंद बुद्धि तुम्हारी
कल्याण करने के लिए तुम्हारा
दंड देना भी है ज़रूरी।
वैकुण्ठलोक से निकल तुम दोनों
पाप योनियों में जाओगे
काम, क्रोध, लोभ में पड़कर
वहाँ बहुत दुःख तुम पाओगे।
सनकादि के कठोर वचन सुन
चरण पकड़ लिए उन दोनों ने
कहें मुनिवर, अपराधी हम
दंड उचित जो दिया आपने।
किंतु हमारी दुर्दशा पर
विचार कर कृपा कीजिए
उन योनियों में जाने पर भी
भगवान स्मृति हमारी बनी रहे।
इधर जब भगवान ने जाना
सनकादि का अनादर हुआ है
चलकर पहुँचे प्रभु वहाँ और
मुनियों ने उन्हें प्रणाम किया है।
प्रभु की अद्भुत छवि निहारते
नेत्र तृप्त उनके ना हो रहे
सनकादि स्तुति करें हरि की
भगवान उन सब से तब ये कहें।
जय,विजय मेरे पार्षद हैं
अपराध किया इन्होंने आपका
आप मेरे अनन्य भक्त हैं
ब्राह्मण आप मेरे परम आराध्य ।
सेवक अगर अपराध करे तो
नाम स्वामी का है होता
संसार स्वामी को दोष दे
कीर्ति को वो दूषित कर देता ।
मेरा अभिप्राय ना समझकर
अपमान किया है इन्होंने आपका
आप बस इतनी कृपा करें
निर्वासन शीघ्र बीत जाए इनका ।
अधम गति जो मिलेगी इनको
शीघ्र ही समाप्त हो जाए
पाप का फल जल्दी से भोगकर
मेरे पास ये वापिस आएँ ।
मुनि बोले, हे प्रभु आप तो
साक्षात धर्म स्वरूप संसार के
आप उचित जैसा भी समझें
वो दण्ड इन दोनों को दें ।
भगवान कहें, मुनिवर जो आपने
इन दोनों को शाप दिया है
सच पूछो तो ये सब वैसे
मेरी प्रेरणा से ही हुआ है ।
शाप के कारण दैत्य योनि को
शीघ्र ये प्राप्त हो जाएँगे
जल्दी योगसंपन्न होकर ये
मेरे पास फिर लौट आएँगे ।
मुनियों ने किए वैकुंठ के दर्शन
की प्रभु की परिक्रमा उन्होंने
फिर भगवान की आज्ञा पाकर
लौट आए थे वो वहाँ से ।
भगवान ने कहा अनुचरों से कि
किसी प्रकार का भय ना करो
इससे होगा कल्याण तुम्हारा
शाप से तुम बिल्कुल ना डरो ।
एक बार योगनिद्रा में मैं था
लक्ष्मी जी को रोका था तुमने
उस समय क्रुद्ध हो गयीं वो
उन्होंने शाप दिया था तुम्हें ।
दैत्य योनि में मेरी प्रति जो
क्रोधवश एकाग्रता होगी
पाप खतम हो जाए तुम्हारा
और तुम्हारी मुक्ति होगी ।
जय,विजय तब उस शाप से
उसी समय श्री हीन हो गए
और जो मिला दण्ड था उनको
वैकुंठ से वो नीचे गिरने लगे ।
उसी समय दित्ति के गर्भ में
कश्यप जी का जो अंश पड़ा है
उस अंश से जन्म लेने को
दोनों ने प्रवेश किया है ।
उन असुरों के तेज से ही
तुम्हारा तेज फीका पड़ा है
ऐसा ही हरि चाहें, उन्होंने
हमेशा तुम्हारा कल्याण किया है ।