श्रीमद्भागवत -२३९; कुब्जा पर कृपा, धनुषभंग और कंस की घबराहट
श्रीमद्भागवत -२३९; कुब्जा पर कृपा, धनुषभंग और कंस की घबराहट
परीक्षित, फिर श्री कृष्ण अपनी
मंडली के साथ आगे बढ़े थे
मार्ग पर चलते हुए एक
युवती स्त्री को देखा उन्होंने।
मुँह तो सुंदर था उसका
परंतु कूबड़ी थी वो शरीर से
नाम उसका कुब्जा पड़ गया
चंदन का पात्र लिए थी हाथों में।
कुब्जा पर कृपा करने के लिए
हंसते हुए कृष्ण ने पूछा उससे
‘ सुंदरी, तुम कौन हो और
चन्दन ले जा रही हो किसके लिए।
यह उत्तम चन्दन मुझे दे दो
इससे कल्याण होगा तुम्हारा
कुब्जा कहे मैं कंस की दासी
और त्रिवक्रा ( कुब्जा ) नाम हमारा।
महाराज मुझे बहुत मानते
चन्दन, अंगराग उनके लिए ये
मेरे तैयार किए अंगराग और चन्दन
बहुत ही भाते हैं उन्हें।
परंतु आप दोनों से बढ़कर
और पात्र नहीं कोई इनका
भगवान के सौंदर्य, प्रेमालाप से
मन हाथ से निकला कुब्जा का।
हृदय न्योछावर कर दिया कृष्ण पर
दोनों भाइयों को अंगराग दे दिया
तब कृष्ण ने पीले रंग का और
बलराम ने लाल अंगराग लगाया।
कुब्जा पर प्रसन्न हुए कृष्ण
प्रत्यक्ष फल देने को उसको
सीधी करने का विचार किया
तीन जगह से टेढ़ी कुब्जा को।
पैरों से उसके पैरों को दबाया
दो उँगलीयां ठोड़ी में लगायीं
शरीर को उसके तनिक उचका दिया
कुब्जा सीधी और समान हो गयी।
भगवान का स्पर्श पाकर
एक उत्तम युवती बन गयी वो
रूप और गुण से सम्पन्न हो गयी
प्रेम से निहारे भगवान को।
बोली, ‘ पुरुषोत्तम तुम्हारी दासी मैं
प्रसन्न होईए मेरे घर चलिए ‘
कृष्ण कहें ‘ काम पूरा करूँ अपना
आऊँगा फिर मैं तुम्हारे घर में ‘।
व्यापारियों के बाज़ार में गए दोनों भाई
भगवान का पूजन किया उन सब ने
ज्यों की त्यों खड़ी रह जातीं
देखतीं जब स्त्रियाँ वहाँ उन्हें।
पुरवासीयों से दोनों ने पूछा
अनुषठान का स्थान कहाँ है
रंगमहल में पहुँच गए दोनों
देखा वहाँ एक धनुष पड़ा है।
इंद्रधनुष समान अद्भुत धनुष वो
रक्षा के लिए सैनिक लगे हुए
कृष्ण ने हाथों से उठा लिया
उसको, रोकने पर भी उनके।
डोरी चढ़ाकर उसपर जब खींचा
दो टुकड़े हो गए उसके
पृथ्वी, आकाश, दिशाएँ भर गयीं
धनुष टूटने के शब्द से।
धनुष के रक्षक दौड़ पड़े थे
भगवान कृष्ण को पकड़ने के लिए
उनका अभिप्राय जानकर
कृष्ण, बलराम थोड़ा क्रोधित हो गए।
उस धनुष के टुकड़ों से ही
उनका काम तमाम कर दिया
और संहार कर दिया था
कंस की भेजी हुई सेना का।
नगरवासीयों ने दोनों भाइयों के
अद्भुत पराक्रम की बात सुनी तो
अनुपम रूप को देखा उनके
और देखा उनके तेज को।
उन्होंने निश्चय किया हो ना हो
कोई श्रेष्ठ देवता ये दोनों
सूर्यास्त होने लगा था जब
अपने डेरे पर लौट आए वो।
मथुरावासी सब उन्हें देखकर
मगन हो रहे परमानन्द में
कृष्ण, बलराम ने धनुष तोड़ दिया
राजा कंस ने जब सुना ये।
और सुना कि सेना का संहार किया
कठिनाई भी तब कोई ना हुई उन्हें
कंस बहुत था डर गया
नींद भी ना आई थी उसे।
जागृत अवस्था में और स्वपन में
बहुत से ऐसे अपशकुन हुए
उसकी मृत्यु के जो सूचक थे
उसको थे वो व्याकुल कर रहे।
जागृत अवस्था में उसने देखा कि
दर्पण में शरीर की परछाई तो दिखे
परंतु जल में और दर्पण में
सिर उसका दिखाई ना दे।
चंद्रमा, तारे, दीपक आदि
दो दो दिखाई दे रहे
छाया में छिद्र दिखाई पड़ता था
वृक्ष सुनहरे प्रतीत होने लगे।
बालू या कीचड़ में उसे
चिन्ह ना दिखे पैरों के
स्वप्नावस्था में उसने देखा कि
गले लग रहा वो प्रेतों के।
गधे पर चढ़कर चलता है
और विषपान वो कर रहा
सारा शरीर तेल से तर उसका
गले में जपाकुसुम की माला।
चिंतातुर हुआ ये अपशकुन देखकर
बहुत ही डर गया वो
सुबह हुई तो राजा कंस ने
प्रारम्भ कराया मल्ल क्रीड़ा उत्सव को।
राजसिंहासन पर बैठ गया वो
उसका चित घबराया हुआ था
चाणूर, मुष्टिक, कूट, शल, तोशल आदि
पहलवान सब आ गए वहाँ।
नंद और गोपों को भी
बुलवाया वहाँ कंस ने
कंस को भेंटें दी उन्होंने
अपना स्थान लेकर बैठ गए।