शीर्षक:मुखरित होते शब्द
शीर्षक:मुखरित होते शब्द
शब्द गीत में निर्झर बहते शब्द मेरे
करते रहते हैं मंद मंद सी सुमधुर ध्वनि
उन क्षीण होती अनुभूतियों की
जिनमें लिप्त रहती थी मैं
वही सहज अनुराग न जाने क्यों
अवचेतन के अतल तक चला जाता है
मेरी चेतना जागृत होते हुए भी
मूक बैठ जाता है कहीं गहराई देखकर
स्मृतियाँ हिलोरे लेती हैं तो लेखनी से
उभर आते शब्दों में झलकते हैं तमाम दर्द
बहती हैं दर्द की असहनीय अनुभूतियां
शब्द टटोल ही लेते हैं स्वयं
और रच डालते हैं एक और नई रचना
मेरे सानिध्य में शायद मुझको ही
बुलबुले यादों के बर जाते हैं शब्द रूपी हवा से
लेखनी देती हैं पुनः एक यथार्थ को पुनर्जन्म
और फिर से एक शब्द रचना होती हैं मुखरित