शहर
शहर
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कुछ बाकी था उस शहर में
जहाँ अक्सर मेरा आना जाना था,
कुछ छूटा था उस गलियों में
जहाँ मैं हर रोज गुजरा करता था,
आज भी वो शहर सुना-सुना सा
लगता है,
आज भी वो गलियाँ खफ़ा-खफ़ा सी
लगती है,
न जाने क्या छूट रहा था हाथ से मेरे
आज भी आकर तेरा इंतज़ार कर
रहा था उन गलियों में ,
आज भी उस शहर की हवाओं में नज़र
आती हो तुम,
आज भी लिखे वो ख़त बिखरे पड़े हुए है
तुम्हारी यादों में ,
ज़्यादा कुछ कहना नहीं था तुमसे
बस एक आखिरी ख़्वाहिश थी मिलने की,
अब तो वो गलियाँ और शहर जल रहे है
तुम्हारी यादों में ,
कब लौट के आओगी तुम मालूम नहीं था
आ के बुझा देना शमा मेरी
जो जल रही थी उस शहर की गलियों में ।