शायद यही ख़ता कर बैठे
शायद यही ख़ता कर बैठे
क़ैद थे दो परिन्दे जो अलग-अलग पिंजरों में...
संग आज़ाद होने की ख्वाहिश कर बैठे
मुमकिन न था जो ख़्वाबों में भी
उसे हक़ीकत समझ बैठे...
बंटवारा ज़मीं का होगा ..
ये सोच आसमां की उड़ान को संग निकल पड़े..
मग़र शायद यही खता बैठे...
अख़्ज को कहाँ मन्ज़ूर था क़फ़स वीरान..
बाज़ी ऐसी खेली उस बद सीरत ने..
जा लगा सीधा हृदय पार
जो निकला तीर ,कमान ...
शान्त धरा ,हुआ शान्त अम्बर भी..
स्तबध हुए सब देख यह विकट दृश्य ..
मतवाले परिन्दों को यूँ क्षणभर में मौन कर बैठे।।
क़ैद थे दो परिन्दे जो अलग-अलग पिंजरों में...
संग आज़ाद होने की ख्वाहिश कर बैठे।
शायद यही ख़ता कर बैठे।।