शाश्वत तुम
शाश्वत तुम
शाश्वत है तुम्हारा आभास,
उस नभ से इस धरा तक ना जाने कितनी वायु है,
उस क्षितिज से इस तट तक ना जाने कितना जल है,
उस युद्ध से इस निद्रा तक ना जाने कितनी शांति है,
शाश्वत है तो बस तुम्हारा आभास,
उस असंभव से इस सृजन तक ना जाने कितना प्रयास है,
उस कंठ से इस हृदय तक ना जाने कितने स्वर हैं,
उस किरण से इस मरण तक ना जाने कितनी उपमा है,
किंतु तुम्हारा आभास उस पाताल से
उस अपरिमेय आकाश तक शाश्वत है।

