शायद!
शायद!
दूर खड़े एक पीपल संग,
मैं कभी बातें किया करता था,
उसकी छांव और झुनझुने,
मुझे अपनी स्तब्धता में खींचे रहा करते थे।
एक दुनिया भी बस्ती थी उसके अलावा,
जाकर देखना पड़ता था,
कौन किसकी चेतना बन रहा है,
कौन कुशल मार्गदर्शन से जिंदगी बना रहा है।
जब मैं छोटा बच्चा था
तब उड़ने भर से नाता था,
एक भारत हुआ करता था, शायद,
आज भी वही है, शायद।
क्या जूतों की शक्ल से ही
मनुष्य का सम्मान नापा जाता था तब भी?
क्या पतंगों की डोर से तब भी
बेजुबान मासूम पंछी मरा करते थे?
जब मैं छोटा बच्चा था,
तब माँ के आंचल से दुनिया रंगीन नजर आती थी।
क्या उस खूबसूरत समय में भी लोग घरों से दूर रहते थे?
क्या बातों-बातों में लोग तब भी सबको छलनी करते थे?
एक दौर हुआ करता था वो,
जब मैं एक छोटा बच्चा था।
क्या तब भी लोग माइक में खड़े होकर
लोगों की यारी जलाते थे?
क्या तब भी तीखे बोल
टी०वी० पर आते थे?
मैं करूं क्या, उस दौर में मेरे कान नहीं थे,
बस पापा का कंधा, डांट,आंसू और ढेर सारा प्यार था।
क्या तब भी लोग घरों से दूर
सड़कों पर ऐसे पिटते थे?
क्या तब भी निज़ामो की काहिल
औलादें कुर्सियों से हुक्म देती थी ?
मुझे तो तब खबरें पढ़ने से नफरत थी,
और उस चैनल से जो पापा दिनभर
लेकर बैठे रहते थे,
क्या करूं बच्चा था मैं, शायद ।
क्या छोटे बच्चे तब भी
घरों से भगाए जाते थे?
क्या भारत ही नाम था
उस जज़्बात के समंदर का?
एक पल को लगता है मैं बड़ा नहीं हुआ,
किसी गलत दुनिया में चला आया हूँ।
क्या तब भी कच्चे मस्तिष्क नंगी तस्वीरों पर
वाह-वाह और बलात्कार पर हाय-हाय करते थे?
क्या उस ठंडी संध्या में भी
किसी सलाह की गर्मी को नारी विरोधी,
देशद्रोही और अमानवीय बताया जाता था?
क्या उस समय भी साल भर एक रोशनी फेंकने वाले
यंत्र की ओर झुका सर सिर्फ त्यौहारों और संबंधों के दबाव में उठता था?
क्या उस वक्त भी साक्षर और शिक्षित में फर्क करते लोग अनपढ़ हुआ करते थे?
क्या उस वक्त भी एक कमरे में कैद इंसान खुद को कवि बताता था?
क्या भक्ति उस वक्त भी ईश्वर अल्लाह को छोड़ तुच्छ, अज्ञानी, नश्वर इंसान की होती थी?
मुझे तो पता नहीं है,
क्योंकि ना मैं उस वक्त भक्ति समझता था,
ना किसी दूसरे भगवान का नाम सुना था।
लोग कहते हैं यह सब चला आ रहा है,
नया नहीं कुछ,
पर क्या वह शीतल रोशनी को रोककर
मुझे अलंकृत करता पीपल इतना बुरा था?
क्या उस वक्त भी चारों दिशाओं से क्या क्या क्या सुनाई देता था?
और यही पूछता मैं थक कर चुप हो जाता था।
मुझे लगता नहीं कि वह मंगल, वह जुम्मा, वह ईद,
वह दिवाली अलग हुआ करती थी,
चलो खैर अभी भी नहीं है, शायद,
पर क्या उस वक्त मोहम्मद और राम में भेद करता,
लड़ा कर खुश होता कोई इब्लीस कोई रावण नहीं था?
इतना बुरा भी नहीं हो सकता वह समय
कि लोग ईमान की कुर्सी पर बैठकर ईमान का सौदा करते रहे हों,
कि लोग उस रोशनी फेंकते यंत्र के कुछ अक्षर पढ़़कर
साक्षर और शिक्षित में भेद दिखाने लगते रहे हों ।
एक रात ऐसे बैठे-बैठे कलम चल जाती है,
तब फिर सोचता हूं कि तब भी तो लोग लिखते रहे होंगे।
इतनी नफरत नहीं थी उस समय में,
इंसानों में, मेरे भारत में, शायद, शायद रही हो, मैं तो खैर बच्चा था,
आज भी हूँ, शायद.......
और आज भी मैं भारत में ही रहता हूँ, शायद..।