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Kanchan Jharkhande

Abstract

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Kanchan Jharkhande

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शापित...

शापित...

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अंधेरे में छिपी रौशनी को 

फिर पिरो लाई हूँ...

लो फिर मैं एक बारी भावनाओं की 

गिरफ्त में लुट आई हूँ...

अब छोड़ दिये हैं पंखों की उड़ान

की वजहों को ढूंढना 

प्रेम के कल्पित मंजर 

अब चुभने लगे हैं....

कभी ईश्वर मिलेंगे तो पूछुंगी

हाथ की लकीरों में जो 

लिखा होता है क्या वही

सत्य होता है... या सत्य से परे

कभी आत्मा से परिचय होगा

तो स्वयं को ढूंढूंगी...

मैंने मन को अब सुखा दिया है

धूप की तोरण पर और 

इंतज़ार या इज़हार अब मेरे 

ताल्लुक़ात में नहीं... 

कोई 'स्वर्णा' अब नहीं रहती आतुर

शहर की शेर के लिए...

सुना है, चाय भी अब फ़ीकी सी लगती है...

इंसानों से भी अब मोह कैसा...

आज़माने के फ़ितरती...

या फिर रंग बदलने के आदि...

कभी ईश्वर मिलेंगे तो पूछुंगी

किसी को प्रेम करना गुनाह है गर

तो किसी मासूम की मदद करना 

पुण्य कैसे...और 

स्वार्थ को सर्वोप्रिय रखना मतलब है 

तो किसी की चाहत से ज्ञात होकर

भी नजरअंदाजी करना जुर्म क्यूँ नहीं!



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