सेवा।
सेवा।
हे विधाता ! तेरी लीला अपरंपार, कोई निर्धन है तो कोई धनवान ।
ऊँच-नीच के चक्कर में, मदमस्त हुआ जाता इंसान ।।
किसी के घर में पकते पकवान, जिसको समझता अपनी शान ।
छप्पन भोग प्रभु को चढ़ाता, कभी न देता निर्धन पर ध्यान ।।
आलीशान महल बनवाता, संग्रह- परिग्रह में घिरा अनजान।
खूब जानता न जाएगा कुछ भी, फिर भी उसको कितना अभिमान ।।
विकासवादी संस्कृति के कारण, भूल बैठा अपने को नादान ।
परस्पर सहयोग की बात तो छोड़ो, अपने को ही समझता भगवान ।।
स्वार्थी बन जीवन है बिताता, अपना ही करता यश गान ।
धन के सूत्र से सभी बंधन है जुड़ते, तभी करते तेरा सम्मान ।।
अहंकार बस इतना डूबा रहता, परमार्थ का हो कैसे ज्ञान ।
प्रारब्ध का फल सब हैं भोगते, क्यों समझता अपना अपमान ।।
अगर चाहता तू परमार्थ सुख को, अपने को तू तुच्छ जान ।
" नीरज" तू कर ले सबकी "सेवा", अंत समय में होगा परेशान ।।
