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SUMAN ARPAN

Inspirational

4.0  

SUMAN ARPAN

Inspirational

सबक़

सबक़

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398


वो मासूम भोली और नादान थी

दुनिया के ज़ुल्मों सितम से अन्जान थी

ग़ज़ब की ख़ूबसूरत और जवान थी

क़िस्मत की हर चाल से अन्जान थी

खेला वक़्त ने अपने समय का खेल

कपंकपाते हाथो से कर रही थी पति का अन्तिम संस्कार 

कभी बेबस होकर मासूम बच्चों को देखती कभी ज़माने को

ढेरों लोग सामने खड़े थे,

अपने अपने काम के काग़ज़ पर हस्ताक्षर करवाने को।

हुई रस्म पगड़ी ससुराल में ताला मिला

बिन मां की उस बेटी को न निवाला मिला, 

ठोकरें खाती वो चल दी ज़िन्दगी के बाज़ार में 

हो गई बच्ची अपाहिज दवा दारू के अभाव में,

नही था करोड़ों की उस मालकिन के पास खिलाने को बच्चों को ज़हर 

बोली लगाने खड़े थे अब लोग सरे बजार में, 

तभी सीखा उसने सीखा ज़िन्दगी का सबसे बड़ा सबक़ 

हर चौनतियौ का मैं का मैं करूँगी डट के सामना,

ज़माने को था क़दमों में झुकाना,

चढ़ने लगी वो एक एक करके बुलन्दियो की सीढ़ियाँ 

मिसाल बन गई फिर वो संसार में 

झूका कर सर खड़ा था वही ज़माना उसके सम्मान में 

जो कभी खड़ा था ख़रीदने को उस मासूम को बाज़ार में, 

है ये संसार की हर नारी का सबक़ 

कोमल हो कमज़ोर नही,शक्ति का नाम ही नारी है

हर विपदा तुम से हारी है!

सृष्टि और प्रलय तुम्हारी मुठठी में शक्ति का स्तोत्र तुम ,

अब नहीं कोई अबला नारी है!

              


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