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Mayank Kumar

Abstract

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Mayank Kumar

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सब मुझ में

सब मुझ में

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सिमटा है हरेक लोक मुझ में

मैं हूं हरेक लोक का नायक

हर लोक में जो रोता गाता 

उसका हूं मैं हंसमुख बंधु

जो जीवन है फूल सा नाज़ुक 

मैं हूं उस जीवन का स्वामी

जो फूल माला बनता है

उस माला का मैं हूं स्वामी

जो धरती पर सड़ता गलता

उसको भी मैं मिट्टी करता

जो धरती पर खूब मचलता

उसको भी मैं मिट्टी करता

मैं ही सब करता धरता हूँ

मुझ में ही है पाप पुण्य सब

मैं ही हूं इनका संचालक

चुनता है जो इसमें जिसको

उसको देता उसका फल मैं

सिमटा है हरेक लोक मुझ में

मैं हूं हरेक लोक का नायक



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