सैलाब
सैलाब
ज़िन्दगी के तपते रेगिस्तान में काफी अर्सों से,
मोहब्बत की चंद बूंदों के लिए तरसती रही वो,
कभी कभी दिल के फलक पे इश्क़ के
रूहानी बादल मंडराते घेर लेते,
और जज़्बातों के बागीचे में प्यार का
दिलखुश मौसम भी बन पड़ता,
फ़िज़ाएं भी रंगीन हो जाती थी
इंद्रधनुषी से उन इश्क़ के रंगों से,
सारा खेल चंद लम्हा चल के गुजर जाता,
पर मोहब्बत के छींटें तक न गिरती,
कम्बख्त सालों बाद जब सच में
इश्क़ की बौछारें फूटी,
तो दिल के बागीचे में खिलने को
कोई जज़्ब न बचे थे,
सख्त चट्टानों सा, मीलों फैला उन बंज़र खली
रेगिस्तानों सा हो चूका था दिल का मैदान,
हताश इश्क़ बरसता रहा घंटो सदियों की
अब शायद वो चट्टानें पिघल जाये,
पर वह तो बुझ चुकी थी
सांसें बची ही कहाँ थी उनमें,
इंतज़ार की आग में इतना झुलसी थी
सदियों की हर एहसास जल के ख़ाक में तब्दील हो गए,
अब तो प्यार का सैलाब भी बेमायने था उनके लिए।