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Vinayak Ranjan

Abstract Tragedy

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Vinayak Ranjan

Abstract Tragedy

..सामने तुम्हारे रुण सा गया हूँ !

..सामने तुम्हारे रुण सा गया हूँ !

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अहा स्वेतलाना,


संगमरमरी झुरमुटों में जो छिप सी गई हो..


हाँ, तुम्हें वो जो पसंद थे..


आँख मिचौली तो आज भी खेला करती हो..


हरे घासों पे ओस की वो बूंदें..


जिसपे खाली पाँव चल तुम जाया करती थी..


देखों अब उन घासों से निकल..


घुंघराऐं बालों सी लताओं ने घेरा तुम्हें है..


ओस की उन बूंदों से अब ये भिंगोया करेंगे..


वे बूंदें ही.. अब तुम पे जो चल जाया करेंगे..


दौड़ते श्वेत रक्त धमनियाँ कमान बनकर..


उन मरमरों में.. संग संग.. कुछ तो जिंदा करेंगे..


अहा स्वेतलाना, फिर आज..


संगमरमरी झुरमुटों में जो छिप सी गई हो..


तुम ही नहीं.. छिप तो गया है अब पूरा ये मंजर..


सोवियत जो बिखरा.. नहीं समझा दिल का समंदर..


पास चर्चों में भी अब वो चर्चे कहाँ हैं..


चर्चील कहाँ है.. संगदिल कहाँ है..


चाहता हूँ अब मैं भी एक बुत बन ही जाऊँ..


तुम्हें फिर से खोजूं.. फिर कुछ गुनगुनाऊँ..


जुड़ इन झुरमुटों में सोवियत मैं खुद बन ही जाऊँ..



बनते सुरों में सजकर अब मैं अपने..


बाँसुरी धुनों की नए चर्चे सुनाऊँ..


अहा स्वेतलाना, देखो अब मैं भी इन..


संगमरमरी झुरमुटों में छिप सा गया हूँ..


..सामने तुम्हारे रुण सा गया हूँ


[बचपन के दिनों में घर पे तब की सोवियत संघ रुस मॉस्को से प्रकाशित एक मासिक पत्रिका आती थी। उस मैगजीन के सिल्क पन्नों पे सजे लेख सुंदर हरे भरे चित्र सहित, जो सोवियत संघ टूटते ही प्रकाशित होने बंद हो गए। आज वर्षो बाद कुछ वैसे ही फ्रोटोग्राफिक चित्र फिर से दिख गए.. दर्द कविता बन कुछ यूं निकल गए.. सामने तुम्हारे रुण सा गया हूँ।]







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