सामाजिक ग़ज़ल
सामाजिक ग़ज़ल
बदलती ज़िंदगी का है पड़ा हम पर असर कैसे
न दिल में प्यार है देखो न रिश्तों की कदर कैसे।।१।।
ख़ुदा का आसरा लेकर हरिक दिन जा रहे कटते,
किसी को क्या पता अपना कि होता है गुज़र कैसे।।२।।
कलाएं तो हरिक इंसान में देता इलाही है,
करें उसपर अगर ना मश्क़ निखरेगा हुनर कैसे।।३।।
अगर मन में अंधेरा नफ़रतों का छा चुका है तो,
मुहब्बत की अलौकिक रौशनी आये नज़र कैसे।।४।।
लिखे मिलते कई क़िस्से हमें उन सब किताबों में,
कि जीते थे व् मरते थे वतन ख़ातिर बशर कैसे।।५।।
चलेगा तू नहीं बनकर हमारे साथ हमराही,
बनेगा फिर मुक़म्मल ज़िंदगी का ये सफ़र कैसे।।६।।
इरादे गर रहें मज़बूत “रोहित” हम सभी के तो,
मिलेगी क्यों नही मंज़िल तथा उसकी डगर कैसे।।७।।