Vivek Madhukar

Abstract

4.2  

Vivek Madhukar

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ऋतु-रंग

ऋतु-रंग

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पुरातन करता है कूच

नूतन को स्थान देने को

पतझड़ में झड़ जाते पत्ते

पेड़ों को नया आवरण देने को।


कू-कू कर कोयल बोल रही

नयी पत्तियाँ पेड़ों पर डोल रहीं

धरती ने पहन लिया बासंती चोला

हर ओर छूट रहा रंग का गोला।


चलने लगी लू

चूने लगा माथे से पसीना

जलने लगा बदन

हाय ! कैसा ज़ालिम यह गर्मी का महीना।


गर्मी घटाने को, दूर भगाने को

आ गयी बरखा रानी देखो

झूम रहे हैं सभी,

बच्चे, बूढ़े, नर-नारी

मिट्टी की सोंधी खुशबू से

महक गयीं दिशाएँ सारी।


ठण्ड से देह अकड़ गयी

कुल्फी अपनी जम गयी

जाड़े से जब छुटी कंपकंपी

चूल्हे के पास महफ़िल अपनी जम गयी।


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