ऋत वसंत
ऋत वसंत
दो हथेलियों पर
बजती है ऋत वसंत
जहाँ अंगुठियों की टंकार हो
तलवार से भी तेज़।
वे आत्माएं
जिनकी एड़ी में
कभी दर्द न हुआ,
जो बैठे-ठाले ही,
पीढ़ी दर पीढ़ी
या कहूँ
सीढ़ी दर सीढ़ी
अपनी पूँछ से बुहारती हैं
प्रकृति को।
उन निकम्मी आत्माओं को
हथेलियों पर बजती अंगूठियां
जब बुलाती है।
वे भुलाती हैं
अपनी अपाहिजता।
दौड़ पड़ती हैं
सम्पूर्णता की ओर।
चेतना बनती हैं...
ऋत वसंत की।
खुशी खुदकी हो तो
लोभ आ ही जाता है आखिर।