Kusum Sharma

Abstract

4.8  

Kusum Sharma

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रिश्तों का सफर

रिश्तों का सफर

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गहराई को रहे नापते

थाह अभी जाकर पाई

भरा कलुष था कितना मन में

तारीफों से अगुवाई


स कहना कितना दुष्कर है

हमने भी अब जान लिया

मोल भाव कर रहे प्रेम का

लोगों को पहचान लिया

हँसती सूरत सबने देखी

मन की राह नही पाई

भरा कलुष था कितना मन में

तारीफों से अगुवाई


भूल गई क्यों तू ए दुनिया

ईश्वर बैठा देख रहा

भले बुरे का सारा खाता

वो कर्मो से तोल रहा

पावन भाव ह्रदय में रखकर

हमनें जग की रीत निभाई

भरा कलुष था कितना मन में

तारीफों से अगुवाई


सुना यहाँ पर सच्चाई से

हर रिश्ता टिक जाता है

लेकिन ये मालूम नहीं था

सच भी अब बिक जाता है

इस दुनिया में सच्चाई की

होती है बस रुसवाई

भरा कलुष था कितना मन में

तारीफों से अगुवाई।


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