रचना
रचना
एक लहर उठी है मन मैं,
क्या है हम नारी अबला ?
कोइ कहता पहन लो चूड़ियाँ,
तुम मर्द हो या हो नारी अबला।
वे हाथ उठाकर नारी पर,
ख़ुद को मर्द कहलाते हैं।
मैं सोचूँ क्या हक हैं उन्हें ?
वे ख़ुद को इन्सान कहलाए।
बल प्रयोग से मर्द कहलाए,
ख़ुद को बुद्धिमान वे पाए,
नारी को पैर की जूती बनाए,
अबला कहकर हँसी उड़ाए।
गर होती कमज़ोर चूड़ियाँ तो,
न सहती इतना अत्याचार,
वो नारी हैं अबला नही,
मन की शक्ति है अपार।
बस मौन है उसका गहना,
और सहनशक्ति हैं श्रृंगार,
न तोड़ तू धीरज के द्वार,
सिमटने को रहो तैयार।
न नाप तू बल से उसे,
देख मन है कितना विशाल,
सो खुशियाँ क़ुर्बान करती,
जीने को तेरी एक मुस्कान।
ये नारी है अबला नहीं,
है उन्हें सबका ख़्याल,
न कमज़ोर समझ,
इन्हें दो सम्मान।।
