प्यारी नींद
प्यारी नींद
निर्धन हो तुम
पर है पास तुम्हारे सुनहरी नींद की संपदा
ओह, कितने तुम संतुष्ट !
धनवान है वह
पर मन बोझिल, ह्रदय में भरी है व्यथा
हाय, कैसा यह दण्ड !
हँसते हो तुम
देख उसे लगाते धन का अम्बार
जिसके खोने की चिन्ता सता रही उसे बारम्बार
झलक रहे हैं स्वेद-कण चेहरे पर
कठिन परिश्रम का प्रसाद
क्या इसलिए खिली है धूप तुम्हारे
आनन पर, नहीं कोई अवसाद !
पीकर तुम झरने का निर्मल जल
रह कर भूखे सो सकते हो निश्चिन्त
ओह, कितने तुम संतुष्ट !
तैर रहा आकण्ठ वह ऐश्वर्य-सिन्धु में
पर डूब रहा दुखातिरेक से निज अश्रु में
हाय, कैसा यह दण्ड !
वह जो था धीर-वीर-गम्भीर
जिसने सही दुःख-दर्द की पीर
जिसे डिगा न सके काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर
जो रहा सदा अपने कर्तव्यपथ पर तत्पर
उसे ही हो हासिल
सुख, चैन और मीठी नींद !
चूस रहा जो लहू दूसरों का
छीन रहा उनके मुख से रोटी
सो रहा सोने-चाँदी के बिस्तर पर
भर रहा धन से अपनी पेटी
हिस्से में आएँ उसके
तपते नैन, कोसों दूर हो जिससे प्यारी नींद !
