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Vivek Madhukar

Abstract

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Vivek Madhukar

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प्यारी नींद

प्यारी नींद

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निर्धन हो तुम

पर है पास तुम्हारे सुनहरी नींद की संपदा

ओह, कितने तुम संतुष्ट !

धनवान है वह

पर मन बोझिल, ह्रदय में भरी है व्यथा

हाय, कैसा यह दण्ड !


हँसते हो तुम

देख उसे लगाते धन का अम्बार

जिसके खोने की चिन्ता सता रही उसे बारम्बार

झलक रहे हैं स्वेद-कण चेहरे पर

कठिन परिश्रम का प्रसाद

क्या इसलिए खिली है धूप तुम्हारे

आनन पर, नहीं कोई अवसाद !


पीकर तुम झरने का निर्मल जल

रह कर भूखे सो सकते हो निश्चिन्त

ओह, कितने तुम संतुष्ट !

तैर रहा आकण्ठ वह ऐश्वर्य-सिन्धु में

पर डूब रहा दुखातिरेक से निज अश्रु में

हाय, कैसा यह दण्ड !


वह जो था धीर-वीर-गम्भीर

जिसने सही दुःख-दर्द की पीर

जिसे डिगा न सके काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर

जो रहा सदा अपने कर्तव्यपथ  पर   तत्पर

उसे ही हो हासिल

सुख, चैन और मीठी नींद !


चूस रहा जो लहू दूसरों का

छीन रहा उनके मुख से रोटी

सो रहा सोने-चाँदी के बिस्तर पर

भर रहा धन से अपनी पेटी

हिस्से में आएँ उसके

तपते नैन, कोसों दूर हो जिससे प्यारी नींद !


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