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अजय गुप्ता

Abstract

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अजय गुप्ता

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पूर्णिमा का चांद

पूर्णिमा का चांद

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ये चांद बड़ा शर्माता है,

बादल में झट छिप जाता है

मैं भी इसका प्रेमी हूं,

पर सवांद नहीं हो पाता है


कल रात जब इसने पट खोले,

अंबर में कितने रंग घोले।

हर अंग धुला धवल सा था,

मैं देख रहा इसको मालूम न था


तनहाई में उसकी अंगड़ाई थी,

मुझ को भी नींद कहां आई थी

वह अब मेरे वतायान पर था,

मैं आगोश में लेने को तत्पर था


वह आज न तनिक शरमाया था,

इतना करीब जो चल के आया था

मैने जैसे बांह पसारी,

वह छिटक कर गगन को भागा था


बोला था वो चांद मेरा,

ये धरती मेरी, अंबर मेरा

मानव तू बड़ा लुटेरा

 तेरा यहां कुछ दिन का डेरा


तुमने धरती बांटी,

अम्बर बांटे,

ना जाने कितने झंडे गाड़े,

कर दिए सुराख धरती में


क्या प्रेम करूँ मैं तुमसे,

तुम तो हुए ना खुद के

भूल गए अरे ओ मानव,

मुसाफिर हो बस कुछ दिन के


मैने तो निश्च्छल चांदनी बरसाई थी,

पर तुम बंटे थे हिन्दू मुस्लिम में

मानव तुम फिर भूल गए, 

पलते हो तुम एक आंचल में


तुम दर्प भरे, तुम अहम भरे,

कदमों ने तेरे, कई जीव हरे

तू हुआ न जब इस धरती का,

आया है, मुझ को बांह भरे


मैं भी कुछ सकुचाया था,

चांद को न मैं भाया था

शांत हृदय सरोवर में,

ये कैसा भूचाल सा आया था


जब जाओगे उस लोक मरे,

जिसके लिए यहां रह कर लड़ते हो

यह चांद गवाही देगा,

तुम कितने विषदंत रखते हो


हर मुसाफिर, को अब सोचना है,

कैसे इस धरती पर रहना है

और दंभ भरे वाचालों को,

अब कुछ सोच समझ कर कहना है



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