पति का बटुआ
पति का बटुआ
मौन रहो मत प्रियवर मेरे
कुछ तो मुंह से बोलो
क्यों मुंह लटकाए रहते
मन की गठरी खोलो
है भगवान क्या बतलाऊँ
कैसे बोलूं मन की बात
रोज रोज ज़ेब पर डाका
सही न जाती यह घात
रखूं भारी सावधानी मैं तब भी
बच नहीं पाता बटुआ मेरा
रोज़ की है ये आफत भारी
कुछ भी नहीं कर सकता तेरा
अब समझ में यह आया
कैसे चुनती सागर से मोती
तरह तरह से मुझे रिझाती
देख बटुआ धैर्य तुम खोती
चाहे सारी दुनिया मुझे दे दो
सुख दुःख में साथ मैं निभाऊं
सुकून मुझे मिलता इससे
कैसे तुम्हें मैं समझाऊं।