पर्व भारत के हैं प्राण
पर्व भारत के हैं प्राण
सूर्य मकर की ओर, बढ़ता अब निरंतर है
आर्य धरा की ओर, आस्था का समंदर है
माघी, पोंगल और, उत्तरायण, खिचड़ी, बिहू
पर्वों का नित उल्लास, विराजे घट अंदर है।
पतंगबाजी का खेल, लोहड़ी की रंगत है
ढोल नगाड़ा संग, खड़ताल की संगत है
घर-मंदिर में आज, भजन, कीर्तन ही महकें
नदियों के छोर, श्रद्धा-धर्म की पंगत है।
पर्व भारत के प्राण, हैं सभ्यता की ये धुरी
मनायें इन्हें आज, छोड़ आदतें सब बुरी
मन की यह आवाज, कुटुंब धरा पर सबको
मिले मोक्ष का धाम, बजे प्रेम की बांसुरी।
