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Kusum Joshi

Inspirational

4.7  

Kusum Joshi

Inspirational

प्रतिबिंब

प्रतिबिंब

2 mins
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आज बैठे बैठे मन में कुछ ख़याल आ रहा था,

मेरा ही प्रतिबिम्ब मुझसे सवाल कर रहा था,

कहां गए वो सपने जो थे मेरे अपने,

कहाँ खो गया वो मौसम,

बिखर गया जीवन का हर क्षण,

तुम कहते हो कुछ बदला नहीं है,

पर बदल गया है पिछला जीवन।


ना तुम वैसे रहे धरा पर,

ना जीवन का कोई मोल है,

हर रोज़ धरा पर विस्फोट हो रहा,

पर तू फिर भी खामोश है,

मेरा मूल्य भी तूने पैसों के लिए बेच दिया,

प्रतिबिम्ब कहां अब दिखेगा तुझे,

तूने शीशा ही जो तोड़ दिया।


अरे पगले! तूने खो दिया स्वर्ग से सुंदर जीवन,

अब रो या पछता पर ना खिलेगा ये उपवन,

सब लोग यहाँ आज मुझे,

ज़िंदा लाश नज़र आते हैं,

सच बोलने से भी नज़रें चुराते हैं,

तुम कहते हो कुछ बदला नहीं है,

पर बदल गया है पिछला जीवन।


मैं ख़ामोश थी कुछ सोच रही थी मन में,

कैसे सामना करूँ अपने प्रतिबिम्ब का,

कि क्या कहूँ इससे अब मैं,

ना कोई रास्ता सूझ रहा था,

मन बस कुछ सोच रहा था,

सही तो कह रहा था शीशे के पीछे का प्रतिबिम्ब,

कहाँ गए जीवन के आदर्श बड़ों के वो पदचिह्न।


सहसा फिर प्रतिबिम्ब बोल उठा कुछ ऐसे,

सुनकर जिसे बस मैं चौंक गए थी जैसे,

बोला तुमने बहुत ही खूब मुझे समझ पाया,

अपने प्रतिबम्ब को तुमने दो कौड़ियों में बहाया,

जीवन के इस मोड़ में अब तू कैसे सम्हल पाएगा,

तू कहता है कुछ बदला नही है,

पर मैं ना सोचता था कि तू इतना बदल जाएगा।


मैं मूक थी बस सोच रही थी क्या करूं,

प्रतिबिम्ब के कटु सवालों का क्या उसको जवाब दूं,

ऐ मेरे दोस्तो कुछ तो मुझे उपाय दो,

मेरे प्रतिबिम्ब के सवालों का कोई तो जवाब दो,

अन्यथा किसी दिन आपका प्रतिबिम्ब भी आपसे यही कह जाएगा,

मैं नहीं जानता था कि, तू इतना बदल जाएगा।।



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