प्रतिभाव
प्रतिभाव
आज-कल यहाँ लोकतंत्र नहीं
बस उसका एक प्रतिभाव है।
एक तरफ़ कोई प्रश्न तो दूजी तरफ़ से
आया उसका अनुवाद है।
परिवारवाद का घूँट लिए,
हर कोई किसी का ख़ास है।
पर देख के तिरंगा आज भी आये
वही नवीन भाव है।
पर फिर भी न जाने क्यों
यहाँ लोकतंत्र नहीं उसका
बस एक प्रतिभाव है।
जो भलाई का देता साथ है,
उसका बनता उपहास है।
भूख है सबको सत्ता की,
धन का ऐसा अनुराग है।
बनने की क्या क्षमता उनमें
नीयत में ही भटकाव है।
पर लोकतंत्र नहीं यहाँ,
उसका बस एक प्रतिभाव है।।
