प्रकृति की वेदना
प्रकृति की वेदना
सहज,सुलभ जीवन हुआ, प्रकृति की गोद में,
गगनचुंबी पर्वत देखो, कैसे धरा पर अडिग है।
मानव जाति धन्य हुई, प्रकृति के भंडार से,
कला नृत्य उपजे धरा पर, ईश्वर के उपकार से।
संसाधन सब खत्म करके, मानवता अब खत्म हुई,
देख कुकर्म मानव जाति के, बसुधा भी क्रोधित हुई।
तीक्ष्ण हैं कटाक्ष यहां, सांत्वना की राह में,
प्राणी जलचर नष्ट हो रहे, विज्ञान के प्रवाह में।
तपन कैसे सहे दुनिया, अकाल से भूखाचारी है,
सघन वन नष्ट करके, तू बना क्रूर, अत्याचारी है।
