प्रकृति की पुकार
प्रकृति की पुकार
एक दरख्त, एक पत्ता, एक बूटा न छूटा,
इंसान ने नदियों,पहाड़ों ,जंगलों को बहुत लूटा,
ये लूट ऐसी लूट थी जो घर मे ही पड़ी,
मुँह बाये समस्याएं अब उसकी ओर ही चली।
हर जर्रे को जंगल के उसने दहका दिया,
हर फूल के जेहन में खौफ महका दिया।
बेखौफ देवदार भी अब बेकरार है,
जैसे कि उसको कटने का अब इंतजार है।
चिड़ियों के जले घर और भुने तितलियों के पंख,
इंसां बहुत जहरीला है जब मरता है डंक।
पेड़ झुरमुट झाड़ियों में जले जीव तब सभी,
जो इस बहार के पहले हकदार थे अभी।
फ्योंली भी सहमी सहमी सी खिली है अबकी बार,
कि जाने वो संगी साथी खिल पाएंगे इस बार?
नदियों से जंगलों तक जब फैला दिया जहर,
पर्यावरण बचाओ का अब झंडा रहा फहर।
दे डाला न्योता आपदा विपदाओं को पहर पहर,
अब डर रहा है खुद तक जब पहुचने लगा कहर ।
हरे भरे जंगलों को बनाया कंक्रीट का शहर,
अब कहता है प्रकृति को रुक तो ठहर ठहर।
खिले बागबान को बना डाला है सहर,
सूखी नदियाँ ,तालाब, झील और नहर।
भूनती है उसको जब तपती सी दोपहर,
एक चुटकी हरियाली को ढूढे उसकी नज़र।
विकास की आस में विनाश कर दिया,
काश प्रकृति संग जलाया होता उन्नति का दिया।
मां प्रकृति ने दिया है बस,कुछ भी नहीं लिया,
इंसां ने बिना सोचे समझे दोहन ही कर दिया।
एक पेड़ एक पौधा तुम भी लगाना आज,
तब करना वर्षभर उस बात पर ही नाज़।
बस अब यही है प्रकृति की छोटी सी गुजारिश,
नाउम्मीद न करना उसे,न करना उसको खारिज।
सर्वोत्तम कृति प्रकृति की इंसान हम कहलाये,
तो हम भी इंसान होने का कुछ तो फ़र्ज निभाएं।
एक पौधा लगाएं या वृक्ष बचाएं,
या जंगल, नदियों, जलस्रोतों से थोड़ा सा कूड़ा हटाएँ।
