प्रकृति का प्रहार
प्रकृति का प्रहार
हाथों में सस्त्र ठान लिया है
रूप चंडी का धर लिया है
नव सर्जन का मानस बना लिया है।
ममता का आँचल फैलाये जो बैठी थी
आज उसने ही संहार किया है
भरते हुए पाप के घड़े का विनाश किया है।
खूब सहे थे घात उसने
आज आत्मरक्षा के लिए प्रहार किया है
खुद का श्रृंगार किया है।
जै कोई उतर आया मैदान में
बच न पाया इसके प्रहार से।
मुँह छुपाये बैठा है जग सारा
अंधकारमय है भविष्य सारा
स्वार्थ ने ही इसको है मारा।
स्वछता अपनाओगे
प्रदुषण घटाओगे
तो उज्जवल भविष्य फिर से पाओगे।