दरिया और पत्थर
दरिया और पत्थर
स्वच्छ है, निर्मल है, बेरंग है।
फिर भी बदलता अपने रंग है।
कभी सूर्य की लाली में रंग जाता है
तो, कभी आकाश की नीली चादर से ढक जाता है।
तो, कभी बादलो को बुलाता है तो वे बरस जाते हैं।
नहीं नाप पाओगे इसकी गहराईयों को
इसमें अथाह प्रेम बसता है।
पत्थर फेकोगे तो मुँह पर उछलता है।
बूंद-बूंद से घड़ा भरता है।
जल में सब घुल जाता हैं।
पर पत्थर कभी नहीं मिल पाता है।
लहरों के थपेड़ो से गोल जरुर बन जाता है
तो कभी बहकर किनारों तक पहुँच जाता है।
रोकने की कोशिश हर वक्त तुम्हारी भी नाकाब नहीं
कभी बाँध और कभी तालाब बन रोक लेते हो
तो कभी पर्वत बन झरना बहाते हो
यूँ तो हो अलग-थलग फिर भी एक दुसरे के बिना रह नहीं पाते हो
कोई चट्टान तो कोई दरिया बन के थम जाते हो।