प्रेमिका की कल्पना
प्रेमिका की कल्पना
ओ कल्पव्रक्ष की स्वर्णकली!
ओ अमलतास की अमलकली!
धरती के आतप से जलते...
मन पर छाई निर्मल बदली...
मैं आपको मधु सुगंध युक्त संसार नहीं दे पाऊँगा।
मैं कहाँ आपके योग्य बन पाऊंगा।।
आप कल्पवृक्ष की पुष्प सदृश
मैं धरती का सुर रहित गायक
आप जीवन के उपभोग योग्य
मैं नहीं स्वयं अपने लायक
आप नहीं अधूरी गजल शुभे
आप शाम गान सी पावन हो
हिम गिरी पर सहसा कौंधी
बिजुरी सी आप मनभावन हो.
इसलिये व्यर्थ शब्दों वाला व्यापार नहीं दे पाऊँगा।
मैं आपके योग्य नहीं बन पाऊंगा
आप जिस शाया पर सायान करे।
वह क्षीर सिन्धु सी पावन हो
जिस आँगन की हो मौलश्री
वह आँगन क्या वृन्दावन हो
जिन अधरों का चुम्बन पाओ
वे अधर नहीं गंगा तट हों
जिसकी छाया बन साथ रहो
वह व्यक्ति नहीं वंशी वट हो
पर मैं वट जैसा सघन छाँव विस्तार नहीं दे पाऊँगा।
आप मुझे करना माफ मैं आपके योग्य नहीं बन पायेंगे
मैं यायावर बंजारा साधु
सुर श्रृंगार भला कैसे
मगर दिल की तप्त सनगिधा यह बता रही हैं,
जो सत्य है वह प्रलक्षित करता हूं
विषय वियागर हो गया मैं
खुद के दिल के मंदिर में मैं आपको
आसन दे दिया बैठा हूं आपको
आप कहाँ परी सदृश
मैं कहाँ पागल जैसा क्या सफल हो पाऊंगा
दिल की पलनों में आपको बिठाने में।
निर्णय मंडल की जज भी और वकील भी आप।

