परछाइयां
परछाइयां
अंधेरे बंद कमरों में उतर आती हैं
परछाइयां,
दीवारों से रेंगती हुई
बैठ जाती हैं
मेरे सामने चुपचाप।
ताकती रहती हैं मेरा पीला पड़ा चेहरा,
धीरे – धीरे
सरकती हैं मेरी ओर;
आंखें फटी रह जाती हैं मेरी
शरीर निष्प्राण
शब्द नहीं फूटते सूखे गले से;
परछाइयों की सरसराहट से भर उठता है
कमरे का बोझिल मौन।
अचानक, परछाइयां बदलने लगी हैं
डरावनी शक्लों में
उग आई हैं जलती हुई आंखें
इन डरावने चेहरों पर;
मुझ तक की दूरी नापने को आतुर
चाबुक से लहराते हाथ;
दबोचने को तत्पर बेडौल हथेलियां;
मोटी - मोटी उंगलियां नुकीले नाख़ूनों के शस्त्र लिए;
और उगते हैं थिरकते, बेडौल, कंकाल से पांव।
मैं अब भी निस्पंद !
इन शक्लों को कोई नाम
कोई पहचान देने की असफल कोशिश करते,
कि पूछ सकूं
मेरे कमरे में आने का,
इस आक्रामकता का प्रयोजन क्या है।
दिन भर की आपाधापी में
अपने लिए
कुछ वक़्त न निकाल पाने की कुढ़न,
मनचाहा न पाने की चुभन,
टूटते हौसलों का दर्द,
बिखरते रिश्तों को न समेट पाने की तपन;
मेरी निराशाओं की
नकारात्मकताओं की गठरियां
दबी रही थीं जो सालों से अंधेरे कोनों में
आज उतर आई हैं मैदान में।
मेरी घुटन के
काले चमकीले बुलबुले फूट रहे हैं
अंग – अंग से;
जा मिले हैं इन डरावनी परछाइयों से।
अनगिनत हाथ बढ़ रहे हैं
मेरी ओर,
मेरे अपने ही अंश !
मैं निस्सहाय, निरुपाय
आस्था की, विश्वास की, रोशनी की
एक किरण थामने को तत्पर;
कि हरा सकूं
परछाइयों को, भीतर – बाहर के अंधेरों को।