परछाई
परछाई
वक़्त की धूप में आज,
ज़िंदगी को जब आँच दी,
अनगिन परछाईयाँ प्रकट हुईं,
कुछ फ़रेबी, कुछ काँच सी...!
रिश्तों के बिंबों में ढूंढ़ा,
प्रतिबिंब, प्यार और एहसास की,
परछाई गहरी काली हो जाती,
बिन स्वारथ के आभास की...!
फिर अक्सों में जब ढूँढने बैठा,
खूशबू धन, दौलत व शोहरत की,
मिट्टी के कंकड़ सी निकल पड़ी,
असलियत संपदा के ,सोहबत की...!
वक़्त की इन परछाई में सब कुछ,
नश्वर क्षणभंगुर जान पड़ा,
मैं एक मुसाफ़िर हूँ अकेला,
बस इसी तथ्य का भान पड़ा...!
मोह के बंधन से थककर जब,
प्रेम वृक्ष तले विश्राम लिया,
वक़्त की तपिश धूप से लड़कर,
वट ने सुकून से छाँव दिया...!