पीड़ा
पीड़ा
मैले बिना चहल-पहल
के गुज़र जाते हैं
खुशियों की आहट तो होती है,
लेकिन वो भी
दरवाज़े से लौट,
जाती है।
बेटी....!
पिता की आशीष और
माँ की सीखें,
अंजूरी में भर-भर कर ले,
जाती है।
लेकिन किससे पूछूँ,
कि ये बाबूल के आंगन की,
चिड़िया देश पराये क्यों,
जाती है।
रीत पुरानी है, जग की,
लेकिन पीड़ा पिता की
जाने न कोई !
