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Sajida Akram

Abstract

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Sajida Akram

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पीड़ा

पीड़ा

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मैले बिना चहल-पहल

के गुज़र जाते हैं

खुशियों की आहट तो होती है,

लेकिन वो भी

दरवाज़े से लौट,

जाती है।


बेटी....!

पिता की आशीष और

माँ की सीखें,

अंजूरी में भर-भर कर ले,

जाती है।


लेकिन किससे पूछूँ,

कि ये बाबूल के आंगन की,

चिड़िया देश पराये क्यों,

जाती है।


रीत पुरानी है, जग की,

लेकिन पीड़ा पिता की

जाने न कोई !


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