पीड़ा - मन की या तन की
पीड़ा - मन की या तन की
तन की पीड़ा से प्रत्येक मनुष्य परिचित होता है, परंतु मन की पीड़ा अत्यंत दुःखद होती है,
जो न तो किसी से कही जा सकती और न ही कोई अन्य व्यक्ति उसे महसूस कर सकता।
मात्र एक वही व्यक्ति है जो सामने वाले के मन की पीड़ा को महसूस कर सकता है
जो उस व्यक्ति से अत्यंत पर्चित् और उसके भावनाओ से पर्चित् हो...!!
अन्यथा ईश्वर के अलावा कोई ऐसा मनुष्य नहीं है
जो अपने सामने वाले व्यक्ति की पीड़ा को पहचान सके।
सुर नर मुनि सब कै यह रीती ।
स्वारथ लागि करहिं सब प्रीति ।।
तुलसी दास जी का ये कथन अत्यंत सिद्ध हुआ है।
चाहे कोई ईश्वर हो, चाहे कोई नर हो, चाहे कोई मुनि या साधु हो सबकी यही रीति है, की स्वार्थ के लिए सब प्रेम करते है। बिना स्वार्थ के कोई किसी का प्रिय नहीं होता है।
वर्तमान समय में तो प्रत्येक मनुष्य स्वार्थी होता जा रहा है।
ऐसा कोई नही है जो बिना स्वार्थ के किसी के पास कुछ क्षण व्यतीत कर सके।
एक क्षण भी मनुष्य किसी की बातों को सुन कर
उसे समझने और समझाने के वजह उसे सलाह देकर कि ये सब मोह माया है।
और वहाँ से उसी क्षण चला जायेगा। क्योंकि उसे उस पीड़ित व्यक्ति की बातें नहीं सुननी होती है।
निश्चित: इसी कारणवश कुछ मनुष्य गलत पथ पर चलना शुरू कर देते हैं और बुराइयों के हत्थे चढ़ जाते है।