फटी जेब
फटी जेब
स्टेशन पर रूकते ही रेलगाडी़ के
भागे आते है ये मेहनतकश।
झुलसती दोपहरी हो या हो भरी बरसात,
अपने काम मे मग्न रहते ये मेहनतकश।
दो जून की रोटी पाने को हाड-मास तोड़ते,
बोझ हमारा उठाते ये मेहनतकश।
मिलेंगे चँद नोट इन्हें,
इसी आस में दो हाथों में,
एक बगल में, तीन सर पे,
ऐसे बैलगाड़ी से लद जाते ये मेहनतकश।
बडे़ ही खुद्दार हैं होते,
मेहनत से ना ज्यादा लेते ये लोग।
महल- गाड़ियों का ना इन्हें लालच,
प्लेटफार्म को ही अपना
महल समझते हैं ये लोग।
ठण्डी हो या तपती गर्मी,
चाहे छम-छम बारिश हो
वहीं पे डेरा लगाए रहते हैं ये लोग।
ना तमन्ना इन्हे मखमल के लिबासों की,
फटा लाल कुर्ता, फ़टी जेब,
उसमें ही खुशहाल हैं
रहते ये मेहनतकश लोग।