फर्ज़ अदायगी की कीमत
फर्ज़ अदायगी की कीमत
कभी पूछा नहीं स्वयं से
क्या चाहता हूँ मैं
सदा पूछता रहा उनसे
जो आज मुझसे पल्ला झाड़ रहे है
अपने उधड़े हालात को करके दरकिनार
सदा फ़िक्र उनकी करता रहा उम्र भर
जो आज नजरें चुराकर बगलें झांकते हैं
कभी अपनी पसंद का ख़्याल नहीं रक्खा
ख्याल सदा उनका रक्खा
जिनके ख्यालों में कभी मैं आता नहीं
कुलांचें मारती चंचल जवानी अपनी गुजार दी
जिस बचपन को सजाने संवारने में
गालों पर छपी झुर्रियों का नक़्शा देखकर
ज़वानी में अब रास्ता बदल लेता है
खपता रहा जिनकी खातिर कभी दिन कभी रात
उनको आज भी पता नहीं में भी
उसी घर में रहता हूँ जहाँ वह रहते हैं
जिनके सपनों को साकार करने में
कहीं पीछे छूट गए थे मेरे अपने सपने
आज जेब खाली है उनकी
मेरा टूटा चश्मा ठीक कराने के लिए
जब कभी खांसता हूँ तो कहने लगते हैं
कब तक ये सब चलेगा, कब छुटकारा मिलेगा
सवाल करना भी जैसे गुनाह हो गया
तो जवाब की उम्मीद भी नज़र नहीं आती
घर के किसी कोने में ख़ुद को समेटकर
सोचता हूँ पिता का फ़र्ज़ निभाया है तो
सांझ ढलते ही उसकी क़ीमत भी चुकानी पड़ेगी
आंसू भी अब टपकने से कतराते हैं
पोंछेगा कौन, कोई अपना तो हो
वक्त से पहले कंधे झुकने लगे हैं
लाठी भी थक कर चूर हो गई है
सहारा भी देगा कौन
मैं अकेला नहीं और भी बहुत हैं जहाँ में
जिनको है इंतज़ार बस सासों के थम जाने का।