फ़रिश्ता
फ़रिश्ता
मज़हब की ऊँची दीवारों को गिराकर
आँखों में रख लो ऐसी मूरत सजाकर।
बचने दुनिया से पनाह कभी ली थी
दिया सहारा जात-पात को मिटाकर।
आलम चारोंओर था ख़ूनख़राबे का
नफ़रत की ज्वाला रखी थी जलाकर
क़द्र न की किसीने मासूम ज़िंदगी की
हर घर रख दिया था मसान बनाकर।
तरसती आँखें नन्हीं तलाशती वज़ूद
किया ग़ैर ने अपना उसे गले लगाकर।
जाति-धर्म न पूछा देखे सिर्फ़ हालात
फ़रिश्ते ने समझा इंसानियत दिखाकर।
कैसे दिखता होगा रब मुझे पता न था
बन गया वो मेरा ख़ुदा ज़िंदगी बचाकर।