फिर भी.....
फिर भी.....
हर रात अमावस की लगती है
जब याद इसकी आती है
हर बार ना कहके वो फिर चिल्लाता है
आँसू ग़म के संग फ़िर गुल जाता है
बिस्तर पर हम लिपकर सोते हैं
जब घड़िया टिक टिक चलती है
सब सोते हैं हम रोते हैं
सुबह उठते ही माथे की नस दुख जाती है
फिर चाय की चुस्की का सहारा हम लेते हैं
ना दिन गुजरता है ना वो दिल दिमाग़ में से जाता है
दिल वो बेहद दुभाता है
फिर भी शाम इसी के नाम लेते ढलती है
सामने हर भाती चीज़ पड़ी है
फ़िर भी ना कुछ खानों को मन करता है
ना कहीं चैन लगता है ना कहीं सुकून मिलता है
ना किसीसे कहा जाता हैं नाही सहा जाता है
औऱ मनचाहा हर काम कोई लाचारी लगता है
इस दौर से गुज़रने पे दम घुट सा जाता है
फिर भी इस सबके बावजूद इसके बिना
जीने के बारे में सोचने से डर लगता है।