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dhara joshi

Abstract

4.0  

dhara joshi

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फिर भी.....

फिर भी.....

1 min
470



हर रात अमावस की लगती है

जब याद इसकी आती है


हर बार ना कहके वो फिर चिल्लाता है

आँसू ग़म के संग फ़िर गुल जाता है


बिस्तर पर हम लिपकर सोते हैं 

जब घड़िया टिक टिक चलती है

सब सोते हैं हम रोते हैं


सुबह उठते ही माथे की नस दुख जाती है

 फिर चाय की चुस्की का सहारा हम लेते हैं


ना दिन गुजरता है ना वो दिल दिमाग़ में से जाता है

दिल वो बेहद दुभाता है

फिर भी शाम इसी के नाम लेते ढलती है


सामने हर भाती चीज़ पड़ी है 

फ़िर भी ना कुछ खानों को मन करता है


ना कहीं चैन लगता है ना कहीं सुकून मिलता है

ना किसीसे कहा जाता हैं नाही सहा जाता है


औऱ मनचाहा हर काम कोई लाचारी लगता है

इस दौर से गुज़रने पे दम घुट सा जाता है


फिर भी इस सबके बावजूद इसके बिना 

जीने के बारे में सोचने से डर लगता है।


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