पहाड़ पर साँझ
पहाड़ पर साँझ
साँझ सबसे भ्रमित पहर
धूमिल सा प्रखर
पहाड़ पर साँझ
एक मनोहर वृतांत
भविष्य में मुख के समक्ष
तस्वीर घूमता हुआ
मन विचलित होता हुआ
भूत की याद दिलाता हुआ
हर क्षण की हर साँझ की
वह धूमिल धूल या धुआँ
दरख्त के ऊपर से गुजरता हुआ
आकाश को छूता हुआ
कहीं दूर एक दीया
गरीबी का प्रतीक
पहाड़ी के नीचे टिमटिमाता हुआ
सड़क से चार पहियों की गर्जना
एकाध बार चितकारती हवा के साथ
आज भी मन चक्षु के किसी कोने में
पहाड़ पर साँझ की खामोशी व्याप्त है।