ओंस की बूंद
ओंस की बूंद
ओस की बूंद जब गिरती है
इस जमीन पर भूल जाती है
अपने अस्तित्व को
क्यों गिरी! किधर से गिरी
पता नहीं उसे अपनी कहानी
पर जब भी गिरी एक नव पल्लव
के रूप में अवतरित हुई
गिरते ही पीछे छोड़ देती कुछ
परिभाषाएं कुछ नई उम्मीदों
से भरी स्मृतियां
क्या तुमने कभी देखा है
ओस की बूंदों की मुस्कुराहट
जो मृदु ममतायी बनकर
ठहर जाती है इन मृग नैनों में
ठीक वैसे ही हर पल आते हो तुम
ओस की बूंद बन कर लिख
जाते हो इस हृदय पर एक
मीठा सा पैगाम
जो ओस की बूंद की भांति ही
भिगो जाते हो रोज इन पलकों को !