STORYMIRROR

usha yadav

Abstract

4  

usha yadav

Abstract

ओंस की बूंद

ओंस की बूंद

1 min
206


ओस की बूंद जब गिरती है 

इस जमीन पर भूल जाती है 

अपने अस्तित्व को 


क्यों गिरी! किधर से गिरी

 पता नहीं उसे अपनी कहानी

पर जब भी गिरी एक नव पल्लव 

के रूप में अवतरित हुई


गिरते ही पीछे छोड़ देती कुछ 

परिभाषाएं कुछ नई उम्मीदों 

से भरी स्मृतियां 


क्या तुमने कभी देखा है 

ओस की बूंदों की मुस्कुराहट 

जो मृदु ममतायी बनकर

 

ठहर जाती है इन मृग नैनों में 

ठीक वैसे ही हर पल आते हो तुम

 

ओस की बूंद बन कर लिख 

जाते हो इस हृदय पर एक 

मीठा सा पैगाम 


जो ओस की बूंद की भांति ही

 भिगो जाते हो रोज इन पलकों को !


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract