नज़्म
नज़्म
एक नज़्म सी उलझी हुई है सीने में,
बातें कुछ रुकी-दबी सी है होठों पर
आओ देखो... बैठा हूँ लेकर मैं इस मेज पर,
कोरा, सफ़ेद एक काग़ज़ और एक पेन्सिल...
और लफ्ज़ हैं कि काग़ज़ पर बैठते ही नहीं,
हर दफा उड़ते-फिरते जाते हैं
रंगीन इन तितलियों की तरह,
उँगलियाँ मचलती है हवा में,
फड़कती है कुछ लिखने को,
पर तेवर उनके भी थम ही जाते हैं
उस पेन्सिल पर जा कर
इतनी देर से बैठा मैं,
इस काग़ज़ पर, इस पेन्सिल से...
लिख पाया हूँ बस एक नाम तेरा
फिर आवाज़ आयी मुझे शायद अंदर से...
कि नाम से तो तेरे ही, होता हूँ मैं मुकम्मल
एक नाम तेरा ही तो है बस,
कामिल इस जहाँ में,
इस नाम से भी दिलक़श...
कोई नज़्म भी, क्या ही होगी।