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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract

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Vijay Kumar parashar "साखी"

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निश्छल

निश्छल

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जिसको जग में मिलता है,छल

उसकी आँखों से बहता है,जल

उसका भीग जाता है,अंतःस्थल

जब अपनों से मिलता है,दलदल

हर शख्स न बन पाता है,कमल

वो बस रोता रह जाता है,पलपल

जब भी छलकता है,कोई निश्छल

छली का बहा देता,चालाकी स्थल

कोई और चाहे उसका साथ न दे,

खुदा सदा उसके रहता,अंतःस्थल

जगवाले कितने दे,धोखेबाजी पल

खुदा बनाता है,उसे हमेशा सफल

जो अपने हृदय में न रखता,मल

ईश्वर रहता है,उस घट हरपल

जिसे चाहिए प्रभु भक्ति का कल

वो पहले खुद को ले,पूरा बदल

न जाना उसे कोई मंदिर,मस्जिद

वो बस हृदय को बना ले निश्छल

जो भी यहां मन से रहता है,सरल

वो बन जाता है,जग मे गंगाजल

उसकी जिंदगी भार रब उठाता है,

गर वो रखता है,सदा हृदय निर्मल!




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