निज़ाम की विडम्बना
निज़ाम की विडम्बना
ये कैसी परवाज़ है चली,
जो छल रही श्रमिक का सम्मान है।
इंसानियत भी निस्तेज है पड़ी,
क्यों यहां श्रमिक निस्संग है खड़ा??
श्रमिक के मन की चंचलता,
उड़ान भरने की अभिलाषा,
मर रही हैं अब वह कहीं।
व्याकुल हो उठा वो भी,
क्या समझ रहा व्यथा कोई??
निज़ाम की अलग ही रीत हैं,
सियासत से ये कैसी प्रीत हैं।
जिस से बना हैं ये निज़ाम,
मरने को छोड़ देना हैं इसका काम??
अब तो ये हालात हैं,
हो रहा हैं सब रेग़जार।
सियासी अखाड़ों में,
हो रही हैं मन की बात।
इंसानियत भी देख जिसे,
हो रही हैं कितनी शर्म-शार ??